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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
केन प्रकारेण संवरो भवतीति चेत् —
अप्पाणमप्पणा रुंधिऊण दोपुण्णपावजोगेसु ।
दंसणणाणम्हि ठिदो इच्छाविरदो य अण्णम्हि ।।१८७।।
जो सव्वसंगमुक्को झायदि अप्पाणमप्पणो अप्पा ।
ण वि कम्मं णोकम्मं चेदा चिंतेदि एयत्तं ।।१८८।।
अप्पाणं झायंतो दंसणणाणमओ अणण्णमओ ।
लहदि अचिरेण अप्पाणमेव सो कम्मपविमुक्कं ।।१८९।।
आत्मानमात्मना रुन्ध्वा द्विपुण्यपापयोगयोः ।
दर्शनज्ञाने स्थितः इच्छाविरतश्चान्यस्मिन् ।।१८७।।
(छद्मस्थके) अन्तर्मुहूर्त ही है, तत्पश्चात् वह खण्डित होती है । इन दो अर्थमेंसे जहाँ जैसी विवक्षा
हो वहाँ वैसा अर्थ समझना चाहिये । अविरतसम्यग्दृष्टि इत्यादि नीचेके गुणस्थानवाले जीवोंके
मुख्यतया पहली अपेक्षा लागू होगी; और श्रेणी चढ़नेवाले जीवके मुख्यतया दूसरी अपेक्षा लागू
होगी, क्योंकि उसका उपयोग शुद्ध आत्मामें ही उपयुक्त है ।१२७।
होगी, क्योंकि उसका उपयोग शुद्ध आत्मामें ही उपयुक्त है ।१२७।
अब प्रश्न करता है कि संवर किस प्रकारसे होता है ? इसका उत्तर कहते हैं : —
शुभ-अशुभसे जो रोककर निज आत्मको आत्मा हि से ।
दर्शन अवरु ज्ञानहि ठहर, परद्रव्यइच्छा परिहरे ।।१८७।।
जो सर्वसंगविमुक्त, ध्यावे आत्मसे आत्मा हि को ।
नहिं कर्म अरु नोकर्म, चेतक चेतता एकत्वको ।।१८८।।
वह आत्म ध्याता, ज्ञानदर्शनमय, अनन्यमयी हुआ ।
बस अल्प काल जु कर्मसे परिमोक्ष पावे आत्मका ।।१८९।।
गाथार्थ : — [आत्मानम् ] आत्माको [आत्मना ] आत्माके द्वारा [द्विपुण्यपापयोगयोः ] दो पुण्य-पापरूप शुभाशुभयोगोंसे [रुन्ध्वा ] रोक कर [दर्शनज्ञाने ] दर्शनज्ञानमें [स्थितः ] स्थित होता हुआ [च ] और [अन्यस्मिन् ] अन्य (वस्तु)की [इच्छाविरतः ] इच्छासे विरत होता हुआ, [यः