यो हि नाम रागद्वेषमोहमूले शुभाशुभयोगे प्रवर्तमानं दृढतरभेदविज्ञानावष्टम्भेन आत्मानं आत्मनैवात्यन्तं रुन्ध्वा शुद्धदर्शनज्ञानात्मन्यात्मद्रव्ये सुष्ठु प्रतिष्ठितं कृत्वा समस्तपरद्रव्येच्छापरिहारेण समस्तसंगविमुक्तो भूत्वा नित्यमेवातिनिष्प्रकम्पः सन् मनागपि कर्मनोकर्मणोरसंस्पर्शेन आत्मीयमात्मानमेवात्मना ध्यायन् स्वयं सहजचेतयितृत्वादेकत्वमेव चेतयते, स खल्वेकत्व- चेतनेनात्यन्तविविक्तं चैतन्यचमत्कारमात्रमात्मानं ध्यायन् शुद्धदर्शनज्ञानमयमात्मद्रव्यमवाप्तः, शुद्धात्मोपलम्भे सति समस्तपरद्रव्यमयत्वमतिक्रान्तः सन् अचिरेणैव सकलकर्म- आत्मा ] जो आत्मा, [सर्वसङ्गमुक्तः ] (इच्छारहित होनेसे) सर्व संगसे रहित होता हुआ, [आत्मानम् ] (अपने) आत्माको [आत्मना ] आत्माके द्वारा [ध्यायति ] ध्याता है, [क र्म नोक र्म ] क र्म तथा नोक र्मको [न अपि ] नहीं ध्याता, एवं [चेतयिता ] (स्वयं) १चेतयिता (होनेसे) [एक त्वम् ] एकत्वको ही [चिन्तयति ] चिन्तवन करता है — चेतता है — अनुभव करता है, [सः ] वह (आत्मा), [आत्मानं ध्यायन् ] आत्माको ध्याता हुआ, [दर्शनज्ञानमयः ] दर्शनज्ञानमय और [अनन्यमयः ] अनन्यमय होता हुआ [अचिरेण एव ] अल्प कालमें ही [क र्मप्रविमुक्तम् ] क र्मोंसे रहित [आत्मानम् ] आत्माको [लभते ] प्राप्त करता है ।
टीका : — जो जीव रागद्वेषमोह जिसका मूल है ऐसे शुभाशुभ योगमें प्रवर्तमान आत्माको दृढ़तर भेदविज्ञानके आलम्बनसे आत्माके द्वारा ही अत्यन्त रोककर, शुद्धदर्शनज्ञानरूप आत्मद्रव्यमें भली भाँति प्रतिष्ठित (स्थिर) करके, समस्त परद्रव्योंकी इच्छाके त्यागसे सर्व संगसे रहित होकर, निरन्तर अति निष्कम्प वर्तता हुआ, कर्म-नोकर्मका किंचित्मात्र भी स्पर्श किये बिना अपने आत्माको ही आत्माके द्वारा ध्याता हुआ, स्वयंको सहज चेतयितापन होनेसे एकत्वको ही चेतता है (ज्ञानचेतनारूप रहता है), वह जीव वास्तवमें, एकत्व-चेतन द्वारा अर्थात् एकत्वके अनुभवन द्वारा (परद्रव्यसे) अत्यन्त भिन्न चैतन्यचमत्कारमात्र आत्माको ध्याता हुआ, शुद्धदर्शनज्ञानमय आत्मद्रव्यको प्राप्त होता हुआ, शुद्ध आत्माकी उपलब्धि (प्राप्ति) होने पर समस्त परद्रव्यमयतासे अतिक्रान्त होता हुआ, अल्प १चेतयिता = ज्ञाता-द्रष्टा