भवति नियतमेषां शुद्धतत्त्वोपलम्भः ।
भवति सति च तस्मिन्नक्षयः कर्ममोक्षः ।।१२८।।
कालमें ही सर्व कर्मोंसे रहित आत्माको प्राप्त करता है । यह संवरका प्रकार (विधि) है ।
भावार्थ : — जो जीव पहले तो रागद्वेषमोहके साथ मिले हुए मनवचनकायके शुभाशुभ योगोंसे अपने आत्माको भेदज्ञानके बलसे चलायमान नहीं होने दे, और फि र उसको शुद्धदर्शनज्ञानमय आत्मस्वरूपमें निश्चल करे तथा समस्त बाह्याभ्यन्तर परिग्रहसे रहित होकर कर्म- नोकर्मसे भिन्न अपने स्वरूपमें एकाग्र होकर उसीका ही अनुभव किया करे अर्थात् उसीके ध्यानमें रहे, वह जीव आत्माका ध्यान करनेसे दर्शनज्ञानमय होता हुआ और परद्रव्यमयताका उल्लंघन करता हुआ अल्प कालमें समस्त कर्मोंसे मुक्त हो जाता है । यह संवर होनेकी रीति है ।।१८७ से १८९।।
श्लोकार्थ : — [भेदविज्ञानशक्त्या निजमहिमरतानां एषां ] जो भेदविज्ञानकी शक्तिके द्वारा निज (स्वरूपकी) महिमामें लीन रहते हैं उन्हेें [नियतम् ] नियमसे [शुद्धतत्त्वोपलम्भः ] शुद्ध तत्त्वकी उपलब्धि [भवति ] होती है; [तस्मिन् सति च ] शुद्ध तत्त्वकी उपलब्धि होने पर, [अचलितम् अखिल-अन्यद्रव्य-दूरे-स्थितानां ] अचलितरूपसे समस्त अन्यद्रव्योंसे दूर वर्तते हुए ऐसे उनके, [अक्षयः क र्ममोक्षः भवति ] अक्षय क र्ममोक्ष होता है (अर्थात् उनका कर्मोंसे छुटकारा हो जाता है कि पुनः कभी कर्मबन्ध नहीं होता) ।१२८।