यथा कश्चिद्विषवैद्यः परेषां मरणकारणं विषमुपभुञ्जानोऽपि अमोघविद्यासामर्थ्येन निरुद्धतच्छक्ति त्वान्न म्रियते, तथा अज्ञानिनां रागादिभावसद्भावेन बन्धकारणं पुद्गलकर्मोदयमुप- भुञ्जानोऽपि अमोघज्ञानसामर्थ्यात् रागादिभावानामभावे सति निरुद्धतच्छक्ति त्वान्न बध्यते ज्ञानी ।
गाथार्थ : — [यथा ] जिसप्रकार [वैद्यः पुरुषः ] वैद्य पुरुष [विषम् उपभुञ्जानः ] विषको भोगता अर्थात् खाता हुआ भी [मरणम् न उपयाति ] मरणको प्राप्त नहीं होता, [तथा ] उसप्रकार [ज्ञानी ] ज्ञानी पुरुष [पुद्गलकर्मणः ] पुद्गलकर्मके [उदयं ] उदयको [भुंक्ते ] भोगता है तथापि [न एव बध्यते ] बन्धता नहीं है ।
टीका : — जिसप्रकार कोई विषवैद्य, दूसरोंके मरणके कारणभूत विषको भोगता हुआ भी, अमोघ (रामबाण) विद्याके सामर्थ्यसे विषकी — शक्ति रुक गई होनेसे, नहीं मरता, उसीप्रकार अज्ञानियोंको, रागादिभावोंका सद्भाव होनेसे बन्धका कारण जो पुद्गलकर्मका उदय उसको ज्ञानी भोगता हुआ भी, अमोघ ज्ञानके सामर्थ्यके द्वारा रागादिभावोंका अभाव होनेसे — कर्मोदयकी शक्ति रुक गई होनेसे, बन्धको प्राप्त नहीं होता ।
भावार्थ : — जैसे वैद्य मन्त्र, तन्त्र, औषधि इत्यादि अपनी विद्याके सामर्थ्यसे विषकी घातकशक्तिका अभाव कर देता है जिससे विषके खा लेने पर भी उसका मरण नहीं होता, उसीप्रकार ज्ञानीके ज्ञानका ऐसा सामर्थ्य है कि वह कर्मोदयकी बन्ध करनेकी शक्तिका अभाव करता है और ऐसा होनेसे कर्मोदयको भोगते हुए भी ज्ञानीके आगामी कर्मबन्ध नहीं होता । इसप्रकार सम्यग्ज्ञानका सामर्थ्य कहा गया है ।।१९५।।