एव स्यात्; सम्यग्दृष्टेस्तु रागादिभावानामभावेन बन्धनिमित्तमभूत्वा केवलमेव निर्जीर्यमाणो
निर्जीर्णः सन्निर्जर्रैव स्यात् ।
अथ ज्ञानसामर्थ्यं दर्शयति — प्रकारोंका अतिक्रम नहीं करता (अर्थात् वेदन दो प्रकारका ही है — सातारूप और असातारूप) । जब उस (सुखरूप अथवा दुःखरूप) भावका वेदन होता है तब मिथ्यादृष्टिको, रागादिभावोंके सद्भावसे बंधका निमित्त होकर (वह भाव) निर्जराको प्राप्त होता हुआ भी (वास्तवमें) निर्जरित न होता हुआ, बन्ध ही होता है; किन्तु सम्यग्दृष्टिके, रागादिभावोंके अभावसे बन्धका निमित्त हुए बिना केवलमात्र निर्जरित होनेसे (वास्तवमें) निर्जरित होता हुआ, निर्जरा ही होती है ।
भावार्थ : — परद्रव्य भोगनेमें आने पर, कर्मोदयके निमित्तसे जीवके सुखरूप अथवा दुःखरूप भाव नियमसे उत्पन्न होता है । मिथ्यादृष्टिके रागादिके कारण वह भाव आगामी बन्ध करके निर्जरित होता है, इसलिये उसे निर्जरित नहीं कहा जा सकता; अतः मिथ्यादृष्टिको परद्रव्यके भोगते हुए बन्ध ही होता है । सम्यग्दृष्टिके रागादिक न होनेसे आगामी बन्ध किये बिना ही वह भाव निर्जरित हो जाता है, इसलिये उसे निर्जरित कहा जा सकता है; अतः सम्यग्दृष्टिके परद्रव्य भोगनेमें आने पर निर्जरा ही होती है । इसप्रकार सम्यग्दृष्टिके भावनिर्जरा होती है ।।१९४।।
श्लोकार्थ : — [किल ] वास्तवमें [तत् सामर्थ्यं ] वह (आश्चर्यकारक ) सामर्थ्य [ज्ञानस्य एव ] ज्ञानका ही है [वा ] अथवा [विरागस्य एव ] विरागका ही है [यत् ] कि [कः अपि ] कोई (सम्यग्दृष्टि जीव) [कर्म भुञ्जानः अपि ] क र्मको भोगता हुआ भी [कर्मभिः न बध्यते ] क र्मोंसे नहीं बन्धता ! (वह अज्ञानीको आश्चर्य उत्पन्न करता है और ज्ञानी उसे यथार्थ जानता है ।) ।१३४।