उपभुज्यमाने सति हि परद्रव्ये, तन्निमित्तः सातासातविकल्पानतिक्रमणेन कर सकता तब तक — जैसे रोगी रोगकी पीड़ाको सहन नहीं कर सकता तब उसका औषधि इत्यादिके द्वारा उपचार करता है इसीप्रकार — भोगोपभोगसामग्रीके द्वारा विषयरूप उपचार करता हुआ दिखाई देता है; किन्तु जैसे रोगी रोगको या औषधिको अच्छा नहीं मानता उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि चारित्रमोहके उदयको या भोगोपभोगसामग्रीको अच्छा नहीं मानता । और निश्चयसे तो, ज्ञातृत्वके कारण सम्यग्दृष्टि विरागी उदयागत कर्मोंको मात्र जान ही लेता है, उनके प्रति उसे रागद्वेषमोह नहीं है । इसप्रकार रागद्वेषमोहके बिना ही उनके फलको भोगता हुआ दिखाई देता है, तो भी उसके कर्मका आस्रव नहीं होता, कर्मास्रवके बिना आगामी बन्ध नहीं होता और उदयागतकर्म तो अपना रस देकर खिर जाते हैं, क्योंकि उदयमें आनेके बाद कर्मकी सत्ता रह ही नहीं सकती । इसप्रकार उसके नवीन बन्ध नहीं होता और उदयागत कर्मकी निर्जरा हो जानेसे उसके केवल निर्जरा ही हुई । इसलिए सम्यग्दृष्टि विरागीके भोगोपभोगको निर्जराका ही निमित्त कहा गया है । पूर्व कर्म उदयमें आकर उसका द्रव्य खिर गया सो वह द्रव्यनिर्जरा है ।।१९३।।
गाथार्थ : — [द्रव्ये उपभुज्यमाने ] वस्तु भोगनेमें आने पर, [सुखं वा दुःखं वा ] सुख अथवा दुःख [नियमात् ] नियमसे [जायते ] उत्पन्न होता है; [उदीर्णं ] उदयको प्राप्त (उत्पन्न हुए) [तत् सुखदुःखम् ] उस सुख-दुःखका [वेदयते ] वेदन करता है — अनुभव करता है, [अथ ] पश्चात् [निर्जरां याति ] वह (सुख-दुःखरूप भाव) निर्जराको प्राप्त होता है ।
टीका : — परद्रव्य भोगनेमें आने पर, उसके निमित्तसे जीवका सुखरूप अथवा दुःखरूप भाव नियमसे ही उदय होता है अर्थात् उत्पन्न होता है, क्योंकि वेदन साता और असाता — इन दो