सम्पन्नान् विषयान् सेवमानोऽपि रागादिभावानामभावेन विषयसेवनफलस्वामित्वाभावाद-
सेवक एव, मिथ्यादृष्टिस्तु विषयानसेवमानोऽपि रागादिभावानां सद्भावेन विषयसेवनफलस्वामि-
त्वात्सेवक एव ।
(मन्दाक्रान्ता)
सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्ति :
स्वं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्त्या ।
यस्माज्ज्ञात्वा व्यतिकरमिदं तत्त्वतः स्वं परं च
स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात्सर्वतो रागयोगात् ।।१३६।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
निर्जरा अधिकार
३०९
विषयोंका सेवन करता हुआ भी रागादिभावोंके अभावके कारण विषयसेवनके फलका स्वामित्व
न होनेसे असेवक ही है (सेवन करनेवाला नहीं है) और मिथ्यादृष्टि विषयोंका सेवन न करता
हुआ भी रागादिभावोंके सद्भावके कारण विषयसेवनके फलका स्वामित्व होनेसे सेवन करनेवाला
ही है ।
भावार्थ : — जैसे किसी सेठने अपनी दुकान पर किसीको नौकर रखा । और वह नौकर
ही दुकानका सारा व्यापार — खरीदना, बेचना इत्यादि सारा कामकाज — करता है तथापि वह
व्यापारी (सेठ) नहीं हैं, क्योंकि वह उस व्यापारका और उस व्यापारके हानि-लाभका स्वामी
नहीं है; वह तो मात्र नौकर है, सेठके द्वारा कराये गये सब कामकाजको करता है । और जो सेठ
है वह व्यापारसम्बन्धी कोई कामकाज नहीं करता, घर ही बैठा रहता है तथापि उस व्यापार तथा
उसके हानि-लाभका स्वामी होनेसे वही व्यापारी (सेठ) है । यह दृष्टान्त सम्यग्दृष्टि और
मिथ्यादृष्टि पर घटित कर लेना चाहिए । जैसे नौकर व्यापार करनेवाला नहीं है इसीप्रकार
सम्यग्दृष्टि विषय सेवन करनेवाला नहीं है, और जैसे सेठ व्यापार करनेवाला है उसीप्रकार
मिथ्यादृष्टि विषय सेवन करनेवाला है ।।१९७।।
अब आगेकी गाथाओंका सूचक काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [सम्यग्दृष्टेः नियतं ज्ञान-वैराग्य-शक्तिः भवति ] सम्यग्दृष्टिके नियमसे
ज्ञान और वैराग्यकी शक्ति होती है; [यस्मात् ] क्योंकि [अयं ] वह (सम्यग्दृष्टि जीव)
[स्व-अन्य-रूप-आप्ति-मुक्त्या ] स्वरूपका ग्रहण और परका त्याग करनेकी विधिके द्वारा
[स्वं वस्तुत्वं कलयितुम् ] अपने वस्तुत्वका (यथार्थ स्वरूपका) अभ्यास करनेके लिये, [इदं
स्वं च परं ] ‘यह स्व है (अर्थात् आत्मस्वरूप है) और यह पर है’ [व्यतिकरम् ] इस