ये कर्मोदयविपाकप्रभवा विविधा भावा न ते मम स्वभावाः । एष टंकोत्कीर्णैक- ज्ञायकभावोऽहम् ।
सम्यग्दृष्टिर्विशेषेण तु स्वपरावेवं जानाति — भेदको [तत्त्वतः ] परमार्थसे [ज्ञात्वा ] जानकर [स्वस्मिन् आस्ते ] स्वमें स्थिर होता है और [परात् रागयोगात् ] परसे — रागके योगसे — [सर्वतः ] सर्वतः [विरमति ] विरमता है । (यह रीति ज्ञानवैराग्यकी शक्तिके बिना नहीं हो सकती ।) ।१३६।
अब प्रथम, यह कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि सामान्यतया स्व और परको इसप्रकार जानता है : —
गाथार्थ : — [कर्मणां ] कर्मोंके [उदयविपाकः ] उदयका विपाक (फल) [जिनवरैः ] जिनेन्द्रदेवोंने [विविधः ] अनेक प्रकारका [वर्णितः ] कहा है [ते ] वे [मम स्वभावाः ] मेरे स्वभाव [न तु ] नहीं है; [अहम् तु ] मैं तोे [एकः ] एक [ज्ञायकभावः ] ज्ञायकभाव हूँ ।
टीका : — जो कर्मोदयके विपाकसे उत्पन्न हुए अनेक प्रकारके भाव हैं वे मेरे स्वभाव नहीं हैं; मैं तो यह (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव हूँ ।
भावार्थ : — इसप्रकार सामान्यतया समस्त कर्मजन्य भावोंको सम्यग्दृष्टि पर जानता है और अपनेको एक ज्ञायकस्वभाव ही जानता है ।।१९८।।