एवं सम्मद्दिट्ठी अप्पाणं मुणदि जाणगसहावं ।
उदयं कम्मविवागं च मुयदि तच्चं वियाणंतो ।।२००।।
एवं सम्यग्दृष्टिः आत्मानं जानाति ज्ञायकस्वभावम् ।
उदयं कर्मविपाकं च मुञ्चति तत्त्वं विजानन् ।।२००।।
एवं सम्यग्दृष्टिः सामान्येन विशेषेण च परस्वभावेभ्यो भावेभ्यः सर्वेभ्योऽपि विविच्य
टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावस्वभावमात्मनस्तत्त्वं विजानाति । तथा तत्त्वं विजानंश्च स्वपरभावो-
पादानापोहननिष्पाद्यं स्वस्य वस्तुत्वं प्रथयन् कर्मोदयविपाकप्रभवान् भावान् सर्वानपि मुञ्चति ।
ततोऽयं नियमात् ज्ञानवैराग्यसम्पन्नो भवति ।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
सद्दृष्टि इस रीत आत्मको, ज्ञायकस्वभाव हि जानता ।
अरु उदय कर्मविपाकको वह, तत्त्वज्ञायक छोड़ता ।।२००।।
गाथार्थ : — [एवं ] इसप्रकार [सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [आत्मानं ] आत्माको
(अपनेको) [ज्ञायकस्वभावम् ] ज्ञायकस्वभाव [जानाति ] जानता है [च ] और [तत्त्वं ]
तत्त्वको अर्थात् यथार्थ स्वरूपको [विजानन् ] जानता हुआ [कर्मविपाकं ] कर्मके विपाकरूप
[उदयं ] उदयको [मुञ्चति ] छोड़ता है ।
टीका : — इसप्रकार सम्यग्दृष्टि सामान्यतया और विशेषतया परभावस्वरूप सर्व
भावोंसे विवेक (भेदज्ञान, भिन्नता) करके, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव जिसका स्वभाव है
ऐसा जो आत्माका तत्त्व उसको (भलीभाँति) जानता है; और इसप्रकार तत्त्वको जानता हुआ,
स्वभावके ग्रहण और परभावके त्यागसे निष्पन्न होने योग्य अपने वस्तुत्वको विस्तरित ( –
प्रसिद्ध) करता हुआ, कर्मोदयके विपाकसे उत्पन्न हुए समस्त भावोंको छोड़ता है । इसलिये
वह (सम्यग्दृष्टि) नियमसे ज्ञानवैराग्यसंपन्न होता है (यह सिद्ध हुआ) ।
भावार्थ : — जब अपनेको तो ज्ञायकभावरूप सुखमय जाने और कर्मोदयसे उत्पन्न
हुए भावोंको आकुलतारूप दुःखमय जाने तब ज्ञानरूप रहना तथा परभावोंसे विरागता — यह
दोनों अवश्य ही होते हैं । यह बात प्रगट अनुभवगोचर है । यही (ज्ञानवैराग्य ही)
सम्यग्दृष्टिका चिह्न है ।।२००।।