अर्थसमयमें जीव नाम है सार, सुनहु सहु;
तातैं जु सार बिनकर्ममल शुद्ध जीव शुद्ध नय कहै,
इस ग्रन्थ माँहि कथनी सबै समयसार बुधजन गहै ।।४।।
प्रथम, संस्कृत टीकाकार श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्यदेव ग्रन्थके प्रारम्भमें मंगलके लिये इष्टदेवको नमस्कार करते हैं : —
श्लोकार्थ : — [नमः समयसाराय ] ‘समय’ अर्थात् जीव नामक पदार्थ, उसमें सार — जो द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म रहित शुद्ध आत्मा, उसे मेरा नमस्कार हो । वह कैसा है ? [भावाय ] शुद्ध सत्तास्वरूप वस्तु है । इस विशेषणपदसे सर्वथा अभाववादी नास्तिकोंका मत खण्डित हो गया । और वह कैसा है ? [चित्स्वभावाय ] जिसका स्वभाव चेतनागुणरूप है । इस विशेषणसे गुण-गुणीका सर्वथा भेद माननेवाले नैयायिकोंका निषेध हो गया । और वह कैसा है ? [स्वानुभूत्या चकासते ] अपनी ही अनुभवनरूप क्रियासे प्रकाशमान है, अर्थात् अपनेको अपनेसे ही जानता है — प्रगट करता है । इस विशेषणसे, आत्माको तथा ज्ञानको सर्वथा परोक्ष ही माननेवाले जैमिनीय – भट्ट – प्रभाकरके भेदवाले मीमांसकोंके मतका खण्डन हो गया; तथा ज्ञान अन्य ज्ञानसे जाना जा सकता है, स्वयं अपनेको नहीं जानता — ऐसा माननेवाले नैयायिकोंका भी प्रतिषेध हो गया । और वह कैसा है ? [सर्वभावान्तरच्छिदे ] अपनेसे अन्य सर्व जीवाजीव, चराचर पदार्थोंको सर्व क्षेत्रकालसम्बन्धी, सर्व विशेषणोंके साथ, एक ही समयमें जाननेवाला है । इस विशेषणसे, सर्वज्ञका अभाव माननेवाले मीमांसक आदिका निराकरण हो गया । इस प्रकारके विशेषणों (गुणों) से शुद्ध आत्माको ही इष्टदेव सिद्ध करके (उसे) नमस्कार किया है ।