नियतटंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावः सन् साक्षाद्विज्ञानघनमात्मानमनुभवति ।
(स्वागता)
पूर्वबद्धनिजकर्मविपाकाद्
ज्ञानिनो यदि भवत्युपभोगः ।
तद्भवत्वथ च रागवियोगा-
न्नूनमेति न परिग्रहभावम् ।।१४६।।
उप्पण्णोदयभोगो वियोगबुद्धीए तस्स सो णिच्चं ।
कंखामणागदस्स य उदयस्स ण कुव्वदे णाणी ।।२१५।।
★पहले, मोक्षाभिलाषी सर्व परिग्रहको छोड़नेके लिए प्रवृत्त हुआ था; उसने इस गाथा तकमें समस्त परिग्रह-
भावको छोड़ दिया, और इसप्रकार समस्त अज्ञानको दूर कर दिया तथा ज्ञानस्वरूप आत्माका अनुभव किया ।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
निर्जरा अधिकार
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भावार्थ : — पुण्य, पाप, अशन, पान इत्यादि समस्त अन्यभावोंका ज्ञानीको परिग्रह नहीं
है, क्योंकि समस्त परभावोंको हेय जाने तब उसकी प्राप्तिकी इच्छा नहीं होती ।★।।२१४।।
अब आगामी गाथाका सूचक काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [पूर्वबद्ध-निज-कर्म-विपाकाद् ] पूर्वबद्ध अपने कर्मके विपाकके कारण
[ज्ञानिनः यदि उपभोगः भवति तत् भवतु ] ज्ञानीके यदि उपभोग हो तो हो, [अथ च ] परंतु
[रागवियोगात् ] रागके वियोग ( – अभाव)के कारण [नूनम् ] वास्तवमें [परिग्रहभावम् न एति ]
वह उपभोग परिग्रहभावको प्राप्त नहीं होता ।
भावार्थ : — पूर्वबद्ध कर्मका उदय आने पर जो उपभोगसामग्री प्राप्त होती है उसे यदि
अज्ञानमय रागभावसे भोगा जाये तो वह उपभोग परिग्रहत्वको प्राप्त हो । परन्तु ज्ञानीके अज्ञानमय
रागभाव नहीं होता । वह जानता है कि जो पहले बाँधा था वह उदयमें आ गया और छूट गया;
अब मैं उसे भविष्यमें नहीं चाहता । इसप्रकार ज्ञानीके रागरूप इच्छा नहीं है, इसलिये उसका
उपभोग परिग्रहत्वको प्राप्त नहीं होता ।१४६।
अब, यह कहते हैं कि ज्ञानीके त्रिकाल सम्बन्धी परिग्रह नहीं है : —
सांप्रत उदयके भोगमें जु वियोगबुद्धी ज्ञानिके ।
अरु भावि कर्मविपाककी, कांक्षा नहीं ज्ञानी करे ।।२१५।।