Samaysar (Hindi). Gatha: 215 Kalash: 146.

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नियतटंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावः सन् साक्षाद्विज्ञानघनमात्मानमनुभवति
(स्वागता)
पूर्वबद्धनिजकर्मविपाकाद्
ज्ञानिनो यदि भवत्युपभोगः
तद्भवत्वथ च रागवियोगा-
न्नूनमेति न परिग्रहभावम्
।।१४६।।
उप्पण्णोदयभोगो वियोगबुद्धीए तस्स सो णिच्चं
कंखामणागदस्स य उदयस्स ण कुव्वदे णाणी ।।२१५।।
पहले, मोक्षाभिलाषी सर्व परिग्रहको छोड़नेके लिए प्रवृत्त हुआ था; उसने इस गाथा तकमें समस्त परिग्रह-
भावको छोड़ दिया, और इसप्रकार समस्त अज्ञानको दूर कर दिया तथा ज्ञानस्वरूप आत्माका अनुभव किया
कहानजैनशास्त्रमाला ]
निर्जरा अधिकार
३३५
भावार्थ :पुण्य, पाप, अशन, पान इत्यादि समस्त अन्यभावोंका ज्ञानीको परिग्रह नहीं
है, क्योंकि समस्त परभावोंको हेय जाने तब उसकी प्राप्तिकी इच्छा नहीं होती ।।२१४।।
अब आगामी गाथाका सूचक काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[पूर्वबद्ध-निज-कर्म-विपाकाद् ] पूर्वबद्ध अपने कर्मके विपाकके कारण
[ज्ञानिनः यदि उपभोगः भवति तत् भवतु ] ज्ञानीके यदि उपभोग हो तो हो, [अथ च ] परंतु
[रागवियोगात् ] रागके वियोग (
अभाव)के कारण [नूनम् ] वास्तवमें [परिग्रहभावम् न एति ]
वह उपभोग परिग्रहभावको प्राप्त नहीं होता
भावार्थ :पूर्वबद्ध कर्मका उदय आने पर जो उपभोगसामग्री प्राप्त होती है उसे यदि
अज्ञानमय रागभावसे भोगा जाये तो वह उपभोग परिग्रहत्वको प्राप्त हो परन्तु ज्ञानीके अज्ञानमय
रागभाव नहीं होता वह जानता है कि जो पहले बाँधा था वह उदयमें आ गया और छूट गया;
अब मैं उसे भविष्यमें नहीं चाहता इसप्रकार ज्ञानीके रागरूप इच्छा नहीं है, इसलिये उसका
उपभोग परिग्रहत्वको प्राप्त नहीं होता ।१४६।
अब, यह कहते हैं कि ज्ञानीके त्रिकाल सम्बन्धी परिग्रह नहीं है :
सांप्रत उदयके भोगमें जु वियोगबुद्धी ज्ञानिके
अरु भावि कर्मविपाककी, कांक्षा नहीं ज्ञानी करे ।।२१५।।