(स्वागता) पूर्वबद्धनिजकर्मविपाकाद् ज्ञानिनो यदि भवत्युपभोगः । तद्भवत्वथ च रागवियोगा- न्नूनमेति न परिग्रहभावम् ।।१४६।।
भावार्थ : — पुण्य, पाप, अशन, पान इत्यादि समस्त अन्यभावोंका ज्ञानीको परिग्रह नहीं है, क्योंकि समस्त परभावोंको हेय जाने तब उसकी प्राप्तिकी इच्छा नहीं होती ।★।।२१४।।
श्लोकार्थ : — [पूर्वबद्ध-निज-कर्म-विपाकाद् ] पूर्वबद्ध अपने कर्मके विपाकके कारण [ज्ञानिनः यदि उपभोगः भवति तत् भवतु ] ज्ञानीके यदि उपभोग हो तो हो, [अथ च ] परंतु [रागवियोगात् ] रागके वियोग ( – अभाव)के कारण [नूनम् ] वास्तवमें [परिग्रहभावम् न एति ] वह उपभोग परिग्रहभावको प्राप्त नहीं होता ।
भावार्थ : — पूर्वबद्ध कर्मका उदय आने पर जो उपभोगसामग्री प्राप्त होती है उसे यदि अज्ञानमय रागभावसे भोगा जाये तो वह उपभोग परिग्रहत्वको प्राप्त हो । परन्तु ज्ञानीके अज्ञानमय रागभाव नहीं होता । वह जानता है कि जो पहले बाँधा था वह उदयमें आ गया और छूट गया; अब मैं उसे भविष्यमें नहीं चाहता । इसप्रकार ज्ञानीके रागरूप इच्छा नहीं है, इसलिये उसका उपभोग परिग्रहत्वको प्राप्त नहीं होता ।१४६।
भावको छोड़ दिया, और इसप्रकार समस्त अज्ञानको दूर कर दिया तथा ज्ञानस्वरूप आत्माका अनुभव किया ।