ज्ञायकभावस्य भावात् केवलं पानकस्य ज्ञायक एवायं स्यात् ।
एमादिए दु विविहे सव्वे भावे य णेच्छदे णाणी ।
जाणगभावो णियदो णीरालंबो दु सव्वत्थ ।।२१४।।
एवमादिकांस्तु विविधान् सर्वान् भावांश्च नेच्छति ज्ञानी ।
ज्ञायकभावो नियतो निरालम्बस्तु सर्वत्र ।।२१४।।
एवमादयोऽन्येऽपि बहुप्रकाराः परद्रव्यस्य ये स्वभावास्तान् सर्वानेव नेच्छति ज्ञानी, तेन
ज्ञानिनः सर्वेषामपि परद्रव्यभावानां परिग्रहो नास्ति । इति सिद्धं ज्ञानिनोऽत्यन्तनिष्परिग्रहत्वम् ।
अथैवमयमशेषभावान्तरपरिग्रहशून्यत्वादुद्वान्तसमस्ताज्ञानः सर्वत्राप्यत्यन्तनिरालम्बो भूत्वा प्रति-
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
इसलिये ज्ञानीके पानका परिग्रह नहीं है । ज्ञानमय एक ज्ञायकभावके सद्भावके कारण यह (ज्ञानी)
पानका केवल ज्ञायक ही है ।
भावार्थ : — आहारकी गाथाके भावार्थकी भाँति यहाँ भी समझना चाहिये ।।२१३।।
ऐसे ही अन्य भी अनेक प्रकारके परजन्य भावोंको ज्ञानी नहीं चाहता, यह कहते हैं : —
ये आदि विधविध भाव बहु ज्ञानी न इच्छे सर्वको ।
सर्वत्र आलम्बन रहित बस, नियत ज्ञायकभाव सो ।।२१४।।
गाथार्थ : — [एवमादिकान् तु ] इत्यादिक [विविधान् ] अनेक प्रकारके [सर्वान् भावान्
च ] सर्व भावोंको [ज्ञानी ] ज्ञानी [न इच्छति ] नहीं चाहता; [सर्वत्र निरालम्बः तु ] सर्वत्र
(सभीमेंं) निरालम्ब वह [नियतः ज्ञायकभावः ] निश्चित ज्ञायकभाव ही है ।
टीका : — इत्यादिक अन्य भी अनेक प्रकारके जो परद्रव्यके स्वभाव हैं उन सभीको ज्ञानी
नहीं चाहता, इसलिये ज्ञानीके समस्त परद्रव्यके भावोंका परिग्रह नहीं है । इसप्रकार ज्ञानीके अत्यन्त
निष्परिग्रहत्व सिद्ध हुआ ।
अब इसप्रकार, समस्त अन्य भावोंके परिग्रहसे शून्यत्वके कारण जिसने समस्त अज्ञानका
वमन कर डाला है ऐसा यह (ज्ञानी), सर्वत्र अत्यन्त निरालम्ब होकर, नियत टंकोत्कीर्ण एक
ज्ञायकभाव रहता हुआ, साक्षात् विज्ञानघन आत्माका अनुभव करता है ।