इच्छा परिग्रहः । तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति । इच्छा त्वज्ञानमयो भावः, अज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति, ज्ञानिनो ज्ञानमय एव भावोऽस्ति । ततो ज्ञानी अज्ञानमयस्य भावस्य इच्छाया अभावात् पानं नेच्छति । तेन ज्ञानिनः पानपरिग्रहो नास्ति । ज्ञानमयस्यैकस्य
भावार्थ : — ज्ञानीके आहारकी भी इच्छा नहीं होती, इसलिये ज्ञानीका आहार करना वह भी परिग्रह नहीं है । यहाँ प्रश्न होता है कि — आहार तो मुनि भी करते हैं, उनके इच्छा है या नहीं ? इच्छाके बिना आहार कैसे किया जा सकता है ? समाधान : असातावेदनीय कर्मके उदयसे जठराग्निरूप क्षुधा उत्पन्न होती है, वीर्यांतरायके उदयसे उसकी वेदना सहन नहीं की जा सकती और चारित्रमोहके उदयसे आहारग्रहणकी इच्छा उत्पन्न होती है । उस इच्छाको ज्ञानी कर्मोंदयका कार्य जानते हैं, और उसे रोग समान जानकर मिटाना चाहते हैं । ज्ञानीके इच्छाके प्रति अनुरागरूप इच्छा नहीं होती अर्थात् उसके ऐसी इच्छा नहीं होती कि मेरी यह इच्छा सदा रहे । इसलिये उसके अज्ञानमय इच्छाका अभाव है । परजन्य इच्छाका स्वामित्व ज्ञानीके नहीं होता, इसलिये ज्ञानी इच्छाका भी ज्ञायक ही है । इसप्रकार शुद्धनयकी प्रधानतासे कथन जानना चाहिए ।।२१२।।
गाथार्थ : — [अनिच्छः ] अनिच्छकको [अपरिग्रहः ] अपरिग्रही [भणितः ] कहा है [च ] और [ज्ञानी ] ज्ञानी [पानम् ] पानको (पेयको) [न इच्छति ] नहीं चाहता, [तेन ] इसलिये [सः ] वह [पानस्य ] पानका [अपरिग्रहः तु ] परिग्रही नहीं है, कि न्तु [ज्ञायकः ] (पानका) ज्ञायक ही [भवति ] है ।
टीका : — इच्छा परिग्रह है । उसको परिग्रह नहीं है — जिसको इच्छा नहीं है । इच्छा तो अज्ञानमयभाव है और अज्ञानमय भाव ज्ञानीके नहीं होता, ज्ञानीके ज्ञानमयभाव ही होता है; इसलिये अज्ञानमयभाव जो इच्छा उसके अभावके कारण ज्ञानी पानको (पानी इत्यादि पेयको) नहीं चाहता;