Samaysar (Hindi). Gatha: 213.

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अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदे पाणं
अपरिग्गहो दु पाणस्स जाणगो तेण सो होदि ।।२१३।।
अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छति पानम्
अपरिग्रहस्तु पानस्य ज्ञायकस्तेन स भवति ।।२१३।।
इच्छा परिग्रहः तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति इच्छा त्वज्ञानमयो भावः,
अज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति, ज्ञानिनो ज्ञानमय एव भावोऽस्ति ततो ज्ञानी अज्ञानमयस्य
भावस्य इच्छाया अभावात् पानं नेच्छति तेन ज्ञानिनः पानपरिग्रहो नास्ति ज्ञानमयस्यैकस्य
कहानजैनशास्त्रमाला ]
निर्जरा अधिकार
३३३
भावार्थ :ज्ञानीके आहारकी भी इच्छा नहीं होती, इसलिये ज्ञानीका आहार करना वह
भी परिग्रह नहीं है यहाँ प्रश्न होता है किआहार तो मुनि भी करते हैं, उनके इच्छा है या
नहीं ? इच्छाके बिना आहार कैसे किया जा सकता है ? समाधान : असातावेदनीय कर्मके उदयसे
जठराग्निरूप क्षुधा उत्पन्न होती है, वीर्यांतरायके उदयसे उसकी वेदना सहन नहीं की जा सकती
और चारित्रमोहके उदयसे आहारग्रहणकी इच्छा उत्पन्न होती है
उस इच्छाको ज्ञानी कर्मोंदयका
कार्य जानते हैं, और उसे रोग समान जानकर मिटाना चाहते हैं ज्ञानीके इच्छाके प्रति अनुरागरूप
इच्छा नहीं होती अर्थात् उसके ऐसी इच्छा नहीं होती कि मेरी यह इच्छा सदा रहे इसलिये उसके
अज्ञानमय इच्छाका अभाव है परजन्य इच्छाका स्वामित्व ज्ञानीके नहीं होता, इसलिये ज्ञानी
इच्छाका भी ज्ञायक ही है इसप्रकार शुद्धनयकी प्रधानतासे कथन जानना चाहिए ।।२१२।।
अब, यह कहते हैं कि ज्ञानीके पानका (पानी इत्यादिके पीनेका) भी परिग्रह नहीं है :
अनिच्छक कहा अपरिग्रही, नहिं पान इच्छा ज्ञानिके
इससे न परिग्रहि पानका वह, पानका ज्ञायक रहे ।।२१३।।
गाथार्थ :[अनिच्छः ] अनिच्छकको [अपरिग्रहः ] अपरिग्रही [भणितः ] कहा है
[च ] और [ज्ञानी ] ज्ञानी [पानम् ] पानको (पेयको) [न इच्छति ] नहीं चाहता, [तेन ] इसलिये
[सः ] वह [पानस्य ] पानका [अपरिग्रहः तु ] परिग्रही नहीं है, कि न्तु [ज्ञायकः ] (पानका)
ज्ञायक ही [भवति ] है
टीका :इच्छा परिग्रह है उसको परिग्रह नहीं हैजिसको इच्छा नहीं है इच्छा तो
अज्ञानमयभाव है और अज्ञानमय भाव ज्ञानीके नहीं होता, ज्ञानीके ज्ञानमयभाव ही होता है; इसलिये
अज्ञानमयभाव जो इच्छा उसके अभावके कारण ज्ञानी पानको (पानी इत्यादि पेयको) नहीं चाहता;