र्भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूतेः ।।३।।
है । इसप्रकार समस्त पदार्थोंके तत्त्वको बतानेवाली ज्ञानरूप तथा वचनरूप अनेकांतमयी
कहे जाते हैं । यह सरस्वतीके मूर्ति अनन्तधर्मोंको ‘स्यात्’ पदसे एक धर्मीमें अविरोधरूपसे
यहाँ कोई प्रश्न करता है कि आत्माको अनन्तधर्मवाला कहा है, सो उसमें वे अनन्त धर्म कौन कौनसे हैं ? उसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि — वस्तुमें अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तिकत्व, अमूर्तिकत्व इत्यादि (धर्म) तो गुण हैं; और उन गुणोंका तीनों कालमें समय-समयवर्ती परिणमन होना पर्याय है, जो कि अनन्त हैं । और वस्तुमें एकत्व, अनेकत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, भेदत्व, अभेदत्व, शुद्धत्व, अशुद्धत्व आदि अनेक धर्म हैं । वे सामान्यरूप धर्म तो वचनगोचर हैं, किन्तु अन्य विशेषरूप अनन्त धर्म भी हैं जो कि वचनके विषय नहीं हैं, किन्तु वे ज्ञानगम्य हैं । आत्मा भी वस्तु है, इसलिये उसमें भी अपने अनन्त धर्म हैं ।
आत्माके अनन्त धर्मोंमें चेतनत्व असाधारण धर्म है वह अन्य अचेतन द्रव्योंमें नहीं है । सजातीय जीवद्रव्य अनन्त हैं, उनमें भी यद्यपि चेतनत्व है तथापि सबका चेतनत्व निजस्वरूपसे भिन्न भिन्न कहा है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्यके प्रदेशभेद होनेसे वह किसीका किसीमें नहीं मिलता । वह चेतनत्व अपने अनन्त धर्मोंमें व्यापक है, इसलिये उसे आत्माका तत्त्व कहा है । उसे यह सरस्वतीकी मूर्ति देखती है और दिखाती है । इसप्रकार इसके द्वारा सर्व प्राणियोंका कल्याण होता है इसलिये ‘सदा प्रकाशरूप रहो’ इसप्रकार इसके प्रति आशीर्वादरूप वचन कहा ।।२।।
श्लोकार्थ : — श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्यदेव कहते हैं कि [समयसारव्याख्यया एव ] इस समयसार (शुद्धात्मा तथा ग्रन्थ) की व्याख्या (टीका) से ही [मम अनुभूतेः ] मेरी अनुभूतिकी