अथ सूत्रावतार : —
वंदित्तु सव्वसिद्धे धुवमचलमणोवमं गदिं पत्ते ।
वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवलीभणिदं ।।१।।
वन्दित्वा सर्वसिद्धान् ध्रुवामचलामनौपम्यां गतिं प्राप्तान् ।
वक्ष्यामि समयप्राभृतमिदं अहो श्रुतकेवलिभणितम् ।।१।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
पूर्वरंग
५
अर्थात् अनुभवनरूप परिणतिकी [परमविशुद्धिः ] परम विशुद्धि (समस्त रागादि विभावपरिणति
रहित उत्कृष्ट निर्मलता) [भवतु ] हो । कैसी है यह मेरी परिणति ? [परपरिणतिहेतोः मोहनाम्नः
अनुभावात् ] परपरिणतिका कारण जो मोह नामक कर्म है, उसके अनुभाव (उदयरूप विपाक)
से [अविरतम् अनुभाव्य-व्याप्ति-कल्माषितायाः ] जो अनुभाव्य (रागादि परिणामों) की व्याप्ति है
उससे निरन्तर कल्माषित अर्थात् मैली है । और मैं कैसा हूँ ? [शुद्ध-चिन्मात्रमूर्तेः ] द्रव्यदृष्टिसे शुद्ध
चैतन्यमात्र मूर्ति हूँ ।
भावार्थ : — आचार्यदेव कहते हैं कि शुद्ध द्रव्यार्थिकनयकी दृष्टिसे तो मैं शुद्ध चैतन्यमात्र
मूर्ति हूँ । किन्तु मेरी परिणति मोहकर्मके उदयका निमित्त पा करके मैली है — रागादिस्वरूप हो
रही है । इसलिये शुद्ध आत्माकी कथनीरूप इस समयसार ग्रंथकी टीका करनेका फल यह चाहता
हूँ कि मेरी परिणति रागादि रहित शुद्ध हो, मेरे शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति हो । मैं दूसरा कुछ भी —
ख्याति, लाभ, पूजादिक — नहीं चाहता । इसप्रकार आचार्यने टीका करनेकी प्रतिज्ञागर्भित उसके
फलकी प्रार्थना की है ।।३।।
अब मूलगाथासूत्रकार श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव ग्रन्थके प्रारम्भमें मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा
करते हैं —
(हरिगीतिका छन्द)
ध्रुव अचल अरु अनुपम गति पाये हुए सब सिद्धको
मैं वंद श्रुतकेवलिकथित कहूँ समयप्राभृतको अहो ।।१।।
गाथार्थ : — [ध्रुवाम् ] ध्रुव, [अचलाम् ] अचल और [अनौपम्यां ] अनुपम — इन तीन
विशेषणोंसे युक्त [गतिं ] गतिको [प्राप्तान् ] प्राप्त हुए [सर्वसिद्धान् ] सर्व सिद्धोंको [वन्दित्वा ]
नमस्कार करके [अहो ] अहो ! [श्रुतकेवलिभणितम् ] श्रुतकेवलियोंके द्वारा कथित [इदं ] यह
[समयप्राभृतम् ] समयसार नामक प्राभृत [वक्ष्यामि ] कहूँगा ।