Samaysar (Hindi).

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अथ प्रथमत एव स्वभावभावभूततया ध्रुवत्वमवलंबमानामनादिभावान्तरपरपरिवृत्ति-
विश्रांतिवशेनाचलत्वमुपगतामखिलोपमानविलक्षणाद्भुतमाहात्म्यत्वेनाविद्यमानौपम्यामपवर्गसंज्ञिकां
गतिमापन्नान
् भगवतः सर्वसिद्धान् सिद्धत्वेन साध्यस्यात्मनः प्रतिच्छन्दस्थानीयान् भावद्रव्यस्तवाभ्यां
स्वात्मनि परात्मनि च निधायानादिनिधनश्रुतप्रकाशितत्वेन निखिलार्थसार्थसाक्षात्कारिकेवलिप्रणीत-
त्वेन श्रुतकेवलिभिः स्वयमनुभवद्भिरभिहितत्वेन च प्रमाणतामुपगतस्यास्य समयप्रकाशक स्य प्राभृता-
ह्वयस्यार्हत्प्रवचनावयवस्य स्वपरयोरनादिमोहप्रहाणाय भाववाचा द्रव्यवाचा च परिभाषणमुपक्रम्यते
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
टीका :यहाँ (संस्कृत टीकामें) ‘अथ’ शब्द मंगलके अर्थको सूचित करता है ग्रंथके
प्रारंभमें सर्व सिद्धोंको भाव-द्रव्यस्तुतिसे अपने आत्मामें तथा परके आत्मामें स्थापित करके इस समय
नामक प्राभृतका भाववचन और द्रव्यवचनसे परिभाषण (व्याख्यान) प्रारम्भ करते हैं
इस प्रकार श्री
कुन्दकुन्दाचार्यदेव कहते हैं वे सिद्ध भगवान्, सिद्धत्वके कारण, साध्य जो आत्मा उसके
प्रतिच्छन्दके स्थान पर हैं,जिनके स्वरूपका संसारी भव्यजीव चिंतवन करके, उनके समान अपने
स्वरूपको ध्याकर, उन्हीं के समान हो जाते हैं और चारों गतियोंसे विलक्षण पंचमगतिमोक्षको प्राप्त
करते हैं वह पंचमगति स्वभावस्वरूप है, इसलिए ध्रुवत्वका अवलम्बन करती है चारों गतियाँ
परनिमित्तसे होती हैं, इसलिए ध्रुव नहीं किन्तु विनश्वर हैं ‘ध्रुव’ विशेषणसे पंचमगतिमें इस
विनश्वरताका व्यवच्छेद हो गया और वह गति अनादिकालसे परभावोंके निमित्तसे होनेवाले परमें
भ्रमण, उसकी विश्रांति (अभाव)के वश अचलताको प्राप्त है इस विशेषणसे, चारों गतियोंमें पर
निमित्तसे जो भ्रमण होता है, उसका पंचमगतिमें व्यवच्छेद हो गया और वह जगत्में जो समस्त
उपमायोग्य पदार्थ हैं उनसे विलक्षणअद्भुत महिमावाली है, इसलिए उसे किसीकी उपमा नहीं
मिल सकती इस विशेषणसे चारों गतियोंमें जो परस्पर कथंचित् समानता पाई जाती है, उसका
पंचमगतिमें निराकरण हो गया और उस गतिका नाम अपवर्ग है धर्म, अर्थ और कामत्रिवर्ग
कहलाते हैं; मोक्षगति इस वर्गमें नहीं है, इसलिए उसे अपवर्ग कही है ऐसी पंचमगतिको सिद्ध
भगवान् प्राप्त हुए हैं उन्हें अपने तथा परके आत्मामें स्थापित करके, समयका (सर्व पदार्थोंका अथवा
जीव पदार्थका) प्रकाशक जो प्राभृत नामक अर्हत्प्रवचनका अवयव है उसका, अनादिकालसे उत्पन्न
हुए अपने और परके मोहका नाश करनेके लिए परिभाषण करता हूँ
वह अर्हत्प्रवचनका अवयव
अनादिनिधन परमागम शब्दब्रह्मसे प्रकाशित होनेसे, सर्व पदार्थोंके समूहको साक्षात् करनेवाले केवली
भगवान् सर्वज्ञदेव द्वारा प्रणीत होनेसे और केवलियोंके निकटवर्ती साक्षात् सुननेवाले तथा स्वयं
अनुभव करनेवाले श्रुतकेवली गणधरदेवोंके द्वारा कथित होनेसे प्रमाणताको प्राप्त है
यह अन्य
वादियोंके आगमकी भाँति छद्मस्थ (अल्पज्ञानियों)की कल्पना मात्र नहीं है कि जिसका अप्रमाण हो
भावार्थ :गाथासूत्रमें आचार्यदेवने ‘वक्ष्यामि’ कहा है, उसका अर्थ टीकाकारने ‘वच्