Samaysar (Hindi). Gatha: 2.

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तत्र तावत्समय एवाभिधीयते
जीवो चरित्तदंसणणाणठिदो तं हि ससमयं जाण
पोग्गलकम्मपदेसट्ठिदं च तं जाण परसमयं ।।२।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
पूर्वरंग
परिभाषणे’ धातुसे परिभाषण किया है उसका आशय इसप्रकार सूचित होता है कि चौदह पूर्वोंमेंसे
ज्ञानप्रवाद नामक पाँचवें पूर्वमें बारह ‘वस्तु’ अधिकार हैं; उनमें भी एक एकके बीस बीस ‘प्राभृत’
अधिकार हैं
उनमेंसे दशवें वस्तुमें समय नामक जो प्राभृत है उसके मूलसूत्रोंके शब्दोंका ज्ञान पहले
बड़े आचार्योंको था और उसके अर्थका ज्ञान आचार्योंकी परिपाटीके अनुसार श्री
कुन्दकुन्दाचार्यदेवको भी था
उन्होंने समयप्राभृतका परिभाषण किया परिभाषासूत्र बनाया
सूत्रकी दश जातियाँ कही गई हैं, उनमेंसे एक ‘परिभाषा’ जाति भी है जो अधिकारको अर्थके द्वारा
यथास्थान सूचित करे वह ‘परिभाषा’ कहलाती है श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव समयप्राभृतका परिभाषण
करते हैं,अर्थात् वे समयप्राभृतके अर्थको ही यथास्थान बतानेवाला परिभाषासूत्र रचते हैं
आचार्यने मंगलके लिए सिद्धोंको नमस्कार किया है संसारीके लिए शुद्ध आत्मा साध्य
है और सिद्ध साक्षात् शुद्धात्मा है, इसलिए उन्हें नमस्कार करना उचित है यहाँ किसी इष्टदेवका
नाम लेकर नमस्कार क्यों नहीं किया ? इसकी चर्चा टीकाकारने मंगलाचरण पर की है, उसे यहाँ
भी समझ लेना चाहिए
सिद्धोंको ‘सर्व’ विशेषण देकर यह अभिप्राय बताया है कि सिद्ध अनन्त
हैं इससे यह माननेवाले अन्यमतियोंका खण्डन हो गया कि ‘शुद्ध आत्मा एक ही है’
‘श्रुतकेवली’ शब्दके अर्थमें (१) श्रुत अर्थात् अनादिनिधन प्रवाहरूप आगम और केवली अर्थात्
सर्वज्ञदेव कहे गये हैं, तथा (२) श्रुत-अपेक्षासे केवली समान ऐसे गणधरदेवादि विशिष्ट श्रुतज्ञानधर
कहे गये हैं; उनसे समयप्राभृतकी उत्पत्ति बताई गई है
इसप्रकार ग्रन्थकी प्रमाणता बताई है, और
अपनी बुद्धिसे कल्पित कहनेका निषेध किया है अन्यवादी छद्मस्थ (अल्पज्ञ) अपनी बुद्धिसे
पदार्थका स्वरूप चाहे जैसा कहकर विवाद करते हैं, उनका असत्यार्थपन बताया है
इस ग्रन्थके अभिधेय, सम्बन्ध और प्रयोजन तो प्रगट ही हैं शुद्ध आत्माका स्वरूप अभिधेय
(कहने योग्य) है उसके वाचक इस ग्रन्थमें जो शब्द हैं उनका और शुद्ध आत्माका वाच्यवाचकरूप
सम्बन्ध है सो सम्बन्ध है और शुद्धात्माके स्वरूपकी प्राप्तिका होना प्रयोजन है ।।१।।
प्रथम गाथामें समयका प्राभृत कहनेकी प्रतिज्ञा की है इसलिए यह आकांक्षा होती है कि
समय क्या है ? इसलिए पहले उस समयको ही कहते हैं :
जीव चरितदर्शनज्ञानस्थित, स्वसमय निश्चय जानना;
स्थित कर्मपुद्गलके प्रदेशों, परसमय जीव जानना
।।२।।