तत्र तावत्समय एवाभिधीयते —
जीवो चरित्तदंसणणाणठिदो तं हि ससमयं जाण ।
पोग्गलकम्मपदेसट्ठिदं च तं जाण परसमयं ।।२।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
पूर्वरंग
७
परिभाषणे’ धातुसे परिभाषण किया है । उसका आशय इसप्रकार सूचित होता है कि चौदह पूर्वोंमेंसे
ज्ञानप्रवाद नामक पाँचवें पूर्वमें बारह ‘वस्तु’ अधिकार हैं; उनमें भी एक एकके बीस बीस ‘प्राभृत’
अधिकार हैं । उनमेंसे दशवें वस्तुमें समय नामक जो प्राभृत है उसके मूलसूत्रोंके शब्दोंका ज्ञान पहले
बड़े आचार्योंको था और उसके अर्थका ज्ञान आचार्योंकी परिपाटीके अनुसार श्री
कुन्दकुन्दाचार्यदेवको भी था । उन्होंने समयप्राभृतका परिभाषण किया — परिभाषासूत्र बनाया ।
सूत्रकी दश जातियाँ कही गई हैं, उनमेंसे एक ‘परिभाषा’ जाति भी है । जो अधिकारको अर्थके द्वारा
यथास्थान सूचित करे वह ‘परिभाषा’ कहलाती है । श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव समयप्राभृतका परिभाषण
करते हैं, — अर्थात् वे समयप्राभृतके अर्थको ही यथास्थान बतानेवाला परिभाषासूत्र रचते हैं ।
आचार्यने मंगलके लिए सिद्धोंको नमस्कार किया है । संसारीके लिए शुद्ध आत्मा साध्य
है और सिद्ध साक्षात् शुद्धात्मा है, इसलिए उन्हें नमस्कार करना उचित है । यहाँ किसी इष्टदेवका
नाम लेकर नमस्कार क्यों नहीं किया ? इसकी चर्चा टीकाकारने मंगलाचरण पर की है, उसे यहाँ
भी समझ लेना चाहिए । सिद्धोंको ‘सर्व’ विशेषण देकर यह अभिप्राय बताया है कि सिद्ध अनन्त
हैं । इससे यह माननेवाले अन्यमतियोंका खण्डन हो गया कि ‘शुद्ध आत्मा एक ही है’ ।
‘श्रुतकेवली’ शब्दके अर्थमें (१) श्रुत अर्थात् अनादिनिधन प्रवाहरूप आगम और केवली अर्थात्
सर्वज्ञदेव कहे गये हैं, तथा (२) श्रुत-अपेक्षासे केवली समान ऐसे गणधरदेवादि विशिष्ट श्रुतज्ञानधर
कहे गये हैं; उनसे समयप्राभृतकी उत्पत्ति बताई गई है । इसप्रकार ग्रन्थकी प्रमाणता बताई है, और
अपनी बुद्धिसे कल्पित कहनेका निषेध किया है । अन्यवादी छद्मस्थ (अल्पज्ञ) अपनी बुद्धिसे
पदार्थका स्वरूप चाहे जैसा कहकर विवाद करते हैं, उनका असत्यार्थपन बताया है ।
इस ग्रन्थके अभिधेय, सम्बन्ध और प्रयोजन तो प्रगट ही हैं । शुद्ध आत्माका स्वरूप अभिधेय
(कहने योग्य) है । उसके वाचक इस ग्रन्थमें जो शब्द हैं उनका और शुद्ध आत्माका वाच्यवाचकरूप
सम्बन्ध है सो सम्बन्ध है । और शुद्धात्माके स्वरूपकी प्राप्तिका होना प्रयोजन है ।।१।।
प्रथम गाथामें समयका प्राभृत कहनेकी प्रतिज्ञा की है । इसलिए यह आकांक्षा होती है कि
समय क्या है ? इसलिए पहले उस समयको ही कहते हैं : —
जीव चरितदर्शनज्ञानस्थित, स्वसमय निश्चय जानना;
स्थित कर्मपुद्गलके प्रदेशों, परसमय जीव जानना ।।२।।