जीवः चरित्रदर्शनज्ञानस्थितः तं हि स्वसमयं जानीहि ।
पुद्गलकर्मप्रदेशस्थितं च तं जानीहि परसमयम् ।।२।।
योऽयं नित्यमेव परिणामात्मनि स्वभावेऽवतिष्ठमानत्वादुत्पादव्ययध्रौव्यैक्यानुभूतिलक्षणया
सत्तयानुस्यूतश्चैतन्यस्वरूपत्वान्नित्योदितविशददृशिज्ञप्तिज्योतिरनंतधर्माधिरूढैकधर्मित्वादुद्योतमानद्रव्यत्वः
क्रमाक्रमप्रवृत्तविचित्रभावस्वभावत्वादुत्संगितगुणपर्यायः स्वपराकारावभासनसमर्थत्वादुपात्तवैश्व-
रूप्यैकरूपः प्रतिविशिष्टावगाहगतिस्थितिवर्तनानिमित्तत्वरूपित्वाभावादसाधारणचिद्रूपतास्वभाव-
८
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
गाथार्थ : — हे भव्य ! [जीवः ] जो जीव [चरित्रदर्शनज्ञानस्थितः ] दर्शन, ज्ञान, चारित्रमें
स्थित हो रहा है [तं ] उसे [हि ] निश्चयसे (वास्तवमें) [स्वसमयं ] स्वसमय [जानीहि ] जानो
[च ] और जो जीव [पुद्गलकर्मप्रदेशस्थितं ] पुद्गलकर्मके प्रदेशोंमें स्थित है [तं ] उसे [परसमयं ]
परसमय [जानीहि ] जानो ।
टीका : — ‘समय’ शब्दका अर्थ इसप्रकार है : — ‘सम्’ उपसर्ग है, जिसका अर्थ
‘एकपना’ है और ‘अय् गतौ’ धातु है, जिसका अर्थ गमन भी है और ज्ञान भी है इसलिए एक
साथ ही (युगपद् ) जानना और परिणमन करना — यह दोनों क्रियायें जो एकत्वपूर्वक करे वह
समय है । यह जीव नामक पदार्थ एकत्वपूर्वक एक ही समयमें परिणमन भी करता है और
जानता भी है; इसलिये वह समय है । यह जीवपदार्थ सदा ही परिणामस्वरूप स्वभावमें रहता
हुआ होनेसे, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यकी एकतारूप अनुभूति जिसका लक्षण है ऐसी सत्ता सहित है ।
(इस विशेषणसे जीवकी सत्ताको न माननेवाले नास्तिकवादियोंका मत खण्डन हो गया; तथा
पुरुषको – जीवको अपरिणामी माननेवाले सांख्यवादियोंका मत परिणामस्वरूप कहनेसे खण्डित हो
गया । नैयायिक और वैशेषिक सत्ताको नित्य ही मानते हैं, और बौद्ध क्षणिक ही मानते हैं, उनका
निराकरण, सत्ताको उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप कहनेसे हो गया ।) और जीव चैतन्यस्वरूपतासे
नित्य-उद्योतरूप निर्मल स्पष्ट दर्शनज्ञान-ज्योतिस्वरूप है (क्योंकि चैतन्यका परिणमन
दर्शनज्ञानस्वरूप है) । (इस विशेषणसे चैतन्यको ज्ञानाकारस्वरूप न माननेवाले सांख्यमतवालोंका
निराकरण हो गया ।) और वह जीव, अनन्त धर्मोंमें रहनेवाला जो एकधर्मीपना है उसके कारण
जिसे द्रव्यत्व प्रगट है; (क्योंकि अनन्त धर्मोंकी एकता द्रव्यत्व है) । (इस विशेषणसे, वस्तुको
धर्मोंसे रहित माननेवाले बौद्धमतियोंका निषेध हो गया ।) और वह क्रमरूप और अक्रमरूप
प्रवर्तमान अनेक भाव जिसका स्वभाव होनेसे जिसने गुणपर्यायोंको अंगीकार किया है — ऐसा है ।
(पर्याय क्रमवर्ती होती है और गुण सहवर्ती होता है; सहवर्तीको अक्रमवर्ती भी कहते हैं ।) (इस
विशेषणसे, पुरुषको निर्गुण माननेवाले सांख्यमतवालोंका निरसन हो गया ।) और वह, अपने और
परद्रव्योंके आकारोंको प्रकाशित करनेकी सामर्थ्य होनेसे जिसने समस्त रूपको प्रकाशनेवाली