चित्स्वभावो जीवो नाम पदार्थः स समयः, समयत एकत्वेन युगपज्जानाति गच्छति चेति निरुक्तेः
अयं खलु यदा सकलभावस्वभावभासनसमर्थविद्यासमुत्पादकविवेक ज्योतिरुद्गमनात्समस्त-
परद्रव्यात्प्रच्युत्य दृशिज्ञप्तिस्वभावनियतवृत्तिरूपात्मतत्त्वैकत्वगतत्वेन वर्तते तदा दर्शनज्ञान-
चारित्रस्थितत्वात्स्वमेकत्वेन युगपज्जानन् गच्छंश्च स्वसमय इति, यदा त्वनाद्यविद्याकंदलीमूल-
मोहरागद्वेषादिभावैकत्वगतत्वेन वर्तते तदा पुद्गलकर्मप्रदेशस्थितत्वात्परमेकत्वेन युगपज्जानन् गच्छंश्च
इसप्रकार अनेकाकारको ही माननेवालाका, व्यवच्छेद हो गया ।) और वह, अन्य द्रव्योंके जो
पुद्गल — इन पाँच द्रव्योंसे भिन्न है । (इस विशेषणसे एक ब्रह्मवस्तुको ही माननेवालेका खण्डन
जब यह (जीव), सर्व पदार्थोंके स्वभावको प्रकाशित करनेमें समर्थ केवलज्ञानको उत्पन्न करनेवाली भेदज्ञानज्योतिका उदय होनेसे, सर्व परद्रव्योंसे छूटकर दर्शनज्ञानस्वभावमें नियत वृत्तिरूप (अस्तित्वरूप) आत्मतत्त्वके साथ एकत्वरूपमें लीन होकर प्रवृत्ति करता है तब दर्शन-ज्ञान-चारित्रमें स्थित होनेसे युगपद् स्वको एकत्वपूर्वक जानता तथा स्व-रूपसे एकत्वपूर्वक परिणमता हुआ वह ‘स्वसमय’ है, इसप्रकार प्रतीत किया जाता है; किन्तु जब वह, अनादि अविद्यारूपी केलेके मूलकी गांठकी भाँति जो (पुष्ट हुआ) मोह उसके उदयानुसार प्रवृत्तिकी आधीनतासे, दर्शन-ज्ञानस्वभावमें नियत वृत्तिरूप आत्मतत्त्वसे छूटकर परद्रव्यके निमित्तसे उत्पन्न मोहरागद्वेषादि भावोंमें एकतारूपसे लीन होकर प्रवृत्त होता है तब पुद्गलकर्मके (कार्माणस्कन्धरूप) प्रदेशोंमें स्थित होनेसे युगपद् परको एकत्वपूर्वक जानता और पररूपसे एकत्वपूर्वक परिणमित होता हुआ ‘परसमय’ है, इसप्रकार प्रतीति की जाती है । इसप्रकार जीव नामक पदार्थकी स्वसमय और परसमयरूप द्विविधता प्रगट होती है ।