समयशब्देनात्र सामान्येन सर्व एवार्थोऽभिधीयते, समयत एकीभावेन स्वगुणपर्यायान् गच्छतीति निरुक्तेः । ततः सर्वत्रापि धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवद्रव्यात्मनि लोके ये यावन्तः केचनाप्यर्थास्ते सर्व एव स्वकीयद्रव्यान्तर्मग्नानन्तस्वधर्मचक्रचुम्बिनोऽपि परस्परमचुम्बन्तोऽत्यन्त-
भावार्थ : — जीव नामक वस्तुको पदार्थ कहा है । ‘जीव’ इसप्रकार अक्षरोंका समूह ‘पद’ है और उस पदसे जो द्रव्यपर्यायरूप अनेकान्तस्वरूपता निश्चित की जाये वह पदार्थ है । यह जीवपदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमयी सत्तास्वरूप है, दर्शनज्ञानमयी चेतनास्वरूप है, अनन्तधर्मस्वरूप द्रव्य है, द्रव्य होनेसे वस्तु है, गुणपर्यायवान है, उसका स्वपरप्रकाशक ज्ञान अनेकाकाररूप एक है, और वह (जीवपदार्थ) आकाशादिसे भिन्न असाधारण चैतन्यगुणस्वरूप है, तथा अन्य द्रव्योंके साथ एक क्षेत्रमें रहने पर भी अपने स्वरूपको नहीं छोड़ता । ऐसा जीव नामक पदार्थ समय है । जब वह अपने स्वभावमें स्थित हो तब स्वसमय है, और परस्वभाव-रागद्वेषमोहरूप होकर रहे तब परसमय है । इसप्रकार जीवके द्विविधता आती है ।।२।।
गाथार्थ : — [एकत्वनिश्चयगतः ] एकत्वनिश्चयको प्राप्त जो [समयः ] समय है वह [लोके ] लोकमें [सर्वत्र ] सब जगह [सुन्दरः ] सुन्दर है [तेन ] इसलिये [एकत्वे ] एकत्वमें [बन्धकथा ] दूसरेके साथ बंधकी कथा [विसंवादिनी ] विसंवाद – विरोध करनेवाली [भवति ] है ।
टीका : — यहाँ ‘समय’ शब्दसे सामान्यतया सभी पदार्थ कहे जाते हैं, क्योंकि व्युत्पत्तिके अनुसार ‘समयते’ अर्थात् एकीभावसे (एकत्वपूर्वक) अपने गुण-पर्यायोंको प्राप्त होकर जो परिणमन करता है सो समय है । इसलिये धर्म-अधर्म-आकाश-काल-पुद्गल-जीवद्रव्यस्वरूप लोकमें सर्वत्र जो कुछ जितने जितने पदार्थ हैं वे सभी निश्चयसे (वास्तवमें) एकत्वनिश्चयको प्राप्त