Samaysar (Hindi). Gatha: 4.

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प्रत्यासत्तावपि नित्यमेव स्वरूपादपतन्तः पररूपेणापरिणमनादविनष्टानंतव्यक्तित्वाट्टंकोत्कीर्णा इव
तिष्ठन्तः समस्तविरुद्धाविरुद्धकार्यहेतुतया शश्वदेव विश्वमनुगृह्णन्तो नियतमेकत्वनिश्चयगतत्वेनैव
सौन्दर्यमापद्यन्ते, प्रकारान्तरेण सर्वसंक रादिदोषापत्तेः
एवमेकत्वे सर्वार्थानां प्रतिष्ठिते सति
जीवाह्वयस्य समयस्य बन्धकथाया एव विसंवादापत्तिः कुतस्तन्मूलपुद्गलकर्मप्रदेश-
स्थितत्वमूलपरसमयत्वोत्पादितमेतस्य द्वैविध्यम अतः समयस्यैकत्वमेवावतिष्ठते
अथैतदसुलभत्वेन विभाव्यते
सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा
एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स ।।४।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
पूर्वरंग
११
होनेसे ही सुन्दरताको पाते हैं, क्योंकि अन्य प्रकारसे उसमें सर्वसंकर आदि दोष आ जायेंगे वे
सब पदार्थ अपने द्रव्यमें अन्तर्मग्न रहनेवाले अपने अनन्त धर्मोंके चक्रको (समूहको) चुम्बन करते
हैं
स्पर्श करते हैं तथापि वे परस्पर एक दूसरे को स्पर्श नहीं करते, अत्यन्त निकट एक
क्षेत्रावगाहरूपसे तिष्ठ रहे हैं तथापि वे सदाकाल अपने स्वरूपसे च्युत नहीं होते, पररूप परिणमन
न करनेसे अनन्त व्यक्तिता नष्ट नहीं होती, इसलिये वे टंकोत्कीर्णकी भांति (शाश्वत) स्थित रहते
हैं और समस्त विरुद्ध कार्य तथा अविरुद्ध कार्य दोनोंकी हेतुतासे वे सदा विश्वका उपकार करते
हैं
टिकाये रखते हैं इसप्रकार सर्व पदार्थोंका भिन्न भिन्न एकत्व सिद्ध होनेसे जीव नामक
समयको बन्धकी कथासे ही विसंवादकी आपत्ति आती है; तो फि र बन्ध जिसका मूल है ऐसा
जो पुद्गलकर्मके प्रदेशोंमें स्थित होना, वह जिसका मूल है ऐसा परसमयपना, उससे उत्पन्न
होनेवाला (परसमय
स्वसमयरूप) द्विविधपना उसको (जीव नामके समयको) कहाँसे हो ?
इसलिये समयके एकत्वका होना ही सिद्ध होता है
भावार्थ :निश्चयसे सर्व पदार्थ अपने अपने स्वभावमें स्थित रहते हुए ही शोभा पाते हैं
परन्तु जीव नामक पदार्थकी अनादि कालसे पुद्गलकर्मके साथ निमित्तरूप बन्ध-अवस्था है; उससे
इस जीवमें विसंवाद खड़ा होता है, अतः वह शोभाको प्राप्त नहीं होता
इसलिये वास्तवमें विचार
किया जाये तो एकत्व ही सुन्दर है; उससे यह जीव शोभाको प्राप्त होता है ।।३।।
अब, उस एकत्वकी असुलभता बताते हैं :
है सर्व श्रुत-परिचित-अनुभूत, भोगबन्धनकी कथा
परसे जुदा एकत्वकी, उपलब्धि केवल सुलभ ना ।।४।।