श्रुतपरिचितानुभूता सर्वस्यापि कामभोगबन्धकथा ।
एकत्वस्योपलम्भः केवलं न सुलभो विभक्तस्य ।।४।।
इह किल सकलस्यापि जीवलोकस्य संसारचक्रक्रोडाधिरोपितस्याश्रांतमनंतद्रव्यक्षेत्र-
कालभवभावपरावर्तैः समुपक्रांतभ्रान्तेरेकच्छत्रीकृतविश्वतया महता मोहग्रहेण गोरिव वाह्यमानस्य
प्रसभोज्जृम्भिततृष्णातंक त्वेन व्यक्तान्तराधेरुत्तम्योत्तम्य मृगतृष्णायमानं विषयग्राममुपरुन्धानस्य
परस्परमाचार्यत्वमाचरतोऽनन्तशः श्रुतपूर्वानन्तशः परिचितपूर्वानन्तशोऽनुभूतपूर्वा चैकत्वविरुद्धत्वेना-
त्यन्तविसंवादिन्यपि कामभोगानुबद्धा कथा । इदं तु नित्यव्यक्ततयान्तःप्रकाशमानमपि कषायचक्रेण
सहैकीक्रियमाणत्वादत्यन्ततिरोभूतं सत् स्वस्यानात्मज्ञतया परेषामात्मज्ञानामनुपासनाच्च न
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
गाथार्थ : — [सर्वस्य अपि ] सर्व लोकको [कामभोगबन्धकथा ] कामभोगसम्बन्धी
बन्धकी कथा तो [श्रुतपरिचितानुभूता ] सुननेमें आ गई है, परिचयमें आ गई है, और अनुभवमें
भी आ गई है, इसलिये सुलभ है; किन्तु [विभक्त स्य ] भिन्न आत्माका [एकत्वस्य उपलम्भः ]
एकत्व होना कभी न तो सुना है, न परिचयमें आया है और न अनुभवमें आया है, इसलिये
[केवलं ] एक वह [न सुलभः ] सुलभ नहीं है ।
टीका : — इस समस्त जीवलोकको, कामभोगसम्बन्धी कथा एकत्वसे विरुद्ध होनेसे
अत्यन्त विसंवाद करानेवाली है (आत्माका अत्यन्त अनिष्ट करनेवाली है) तथापि, पहले अनन्त
बार सुननेमें आई है, अनन्त बार परिचयमें आई है और अनन्त बार अनुभवमें भी आ चुकी
है । वह जीवलोक, संसाररूपी चक्रके मध्यमें स्थित है, निरन्तर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और
भावरूप अनन्त परावर्तनोंके कारण भ्रमणको प्राप्त हुआ है, समस्त विश्वको एकछत्र राज्यसे वश
करनेवाला महा मोहरूपी भूत जिसके पास बैलकी भांति भार वहन कराता है, जोरसे प्रगट
हुए तृष्णारूपी रोगके दाहसे जिसको अन्तरंगमें पीड़ा प्रगट हुई है, आकुलित हो होकर
मृगजलकी भाँति विषयग्रामको (इन्द्रियविषयोंके समूहको) जिसने घेरा डाल रखा है, और वह
परस्पर आचार्यत्व भी करता है (अर्थात् दूसरोंसे कहकर उसी प्रकार अंगीकार करवाता है) ।
इसलिये कामभोगकी कथा तो सबके लिये सुलभ है । किन्तु निर्मल भेदज्ञानरूपी प्रकाशसे
स्पष्ट भिन्न दिखाई देनेवाला यह मात्र भिन्न आत्माका एकत्व ही — जो कि सदा प्रगटरूपसे
अन्तरङ्गमें प्रकाशमान है तथापि कषायचक्र (-कषायसमूह)के साथ एकरूप जैसा किया जाता
है, इसलिये अत्यन्त तिरोभावको प्राप्त हुआ है ( – ढक रहा है) वह — अपनेमें अनात्मज्ञता
होनेसे ( — स्वयं आत्माको न जाननेसे) और अन्य आत्माको जाननेवालोंकी संगति – सेवा न
करनेसे, न तो पहले कभी सुना है, न पहले कभी परिचयमें आया है और न पहले कभी