विविक्तं केवलमेकत्वम् । अत एकत्वस्य न सुलभत्वम् ।
भावार्थ : — इस लोकमें समस्त जीव संसाररूपी चक्रपर चढ़कर पंच परावर्तनरूप भ्रमण करते हैं । वहाँ उन्हें मोहकर्मोदयरूपी पिशाचके द्वारा जोता जाता है, इसलिये वे विषयोंकी तृष्णारूपी दाहसे पीड़ित होते हैं और उस दाहका इलाज (उपाय) इन्द्रियोंके रूपादि विषयोंको जानकर उनकी ओर दौड़ते हैं; तथा परस्पर भी विषयोंका ही उपदेश करते हैं । इसप्रकार काम तथा भोगकी कथा तो अनन्त बार सुनी, परिचयमें प्राप्त की और उसीका अनुभव किया, इसलिये वह सुलभ है । किन्तु सर्व परद्रव्योंसे भिन्न एक चैतन्यचमत्कारस्वरूप अपने आत्माकी कथाका ज्ञान अपनेको तो अपनेसे कभी नहीं हुआ, और जिन्हें वह ज्ञान हुआ है उनकी कभी सेवा नहीं की; इसलिये उसकी कथा न तो कभी सुनी, न उसका परिचय किया और न उसका अनुभव किया । इसलिये उनकी प्राप्ति सुलभ नहीं दुर्लभ है ।।४।।
अब आचार्य कहते हैं कि इसीलिये जीवोंको उस भिन्न आत्माका एकत्व बतलाते हैं : —
गाथार्थ : — [तम् ] उस [एकत्वविभक्तं ] एकत्वविभक्त आत्माको [अहं ] मैं [आत्मनः आत्माके [स्वविभवेन ] निज वैभवसे [दर्शये ] दिखाता हूँ; [यदि ] यदि मैं [दर्शयेयं ] दिखाऊँ तो [प्रमाणं ] प्रमाण (स्वीकार) करना, [स्खलेयं ] और यदि कहीं चूक जाऊँ तो [छलं ] छल [न ] नहीं [गृहीतव्यम् ] ग्रहण करना ।