Samaysar (Hindi). Gatha: 5.

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कदाचिदपि श्रुतपूर्वं, न कदाचिदपि परिचितपूर्वं, न कदाचिदप्यनुभूतपूर्वं च निर्मलविवेकालोक-
विविक्तं केवलमेकत्वम
अत एकत्वस्य न सुलभत्वम
अत एवैतदुपदर्श्यते
तं एयत्तविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण
जदि दाएज्ज पमाणं चुक्केज्ज छलं ण घेत्तव्वं ।।५।।
तमेकत्वविभक्तं दर्शयेऽहमात्मनः स्वविभवेन
यदि दर्शयेयं प्रमाणं स्खलेयं छलं न गृहीतव्यम।।५।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
पूर्वरंग
१३
अनुभवमें आया है इसलिये भिन्न आत्माका एकत्व सुलभ नहीं है
भावार्थ :इस लोकमें समस्त जीव संसाररूपी चक्रपर चढ़कर पंच परावर्तनरूप भ्रमण
करते हैं वहाँ उन्हें मोहकर्मोदयरूपी पिशाचके द्वारा जोता जाता है, इसलिये वे विषयोंकी
तृष्णारूपी दाहसे पीड़ित होते हैं और उस दाहका इलाज (उपाय) इन्द्रियोंके रूपादि विषयोंको
जानकर उनकी ओर दौड़ते हैं; तथा परस्पर भी विषयोंका ही उपदेश करते हैं
इसप्रकार काम
तथा भोगकी कथा तो अनन्त बार सुनी, परिचयमें प्राप्त की और उसीका अनुभव किया,
इसलिये वह सुलभ है
किन्तु सर्व परद्रव्योंसे भिन्न एक चैतन्यचमत्कारस्वरूप अपने आत्माकी
कथाका ज्ञान अपनेको तो अपनेसे कभी नहीं हुआ, और जिन्हें वह ज्ञान हुआ है उनकी कभी
सेवा नहीं की; इसलिये उसकी कथा न तो कभी सुनी, न उसका परिचय किया और न उसका
अनुभव किया
इसलिये उनकी प्राप्ति सुलभ नहीं दुर्लभ है ।।४।।
अब आचार्य कहते हैं कि इसीलिये जीवोंको उस भिन्न आत्माका एकत्व बतलाते
हैं :
दर्शाऊँ एक विभक्त को, आत्मातने निज विभवसे
दर्शाऊँ तो करना प्रमाण, न छल ग्रहो स्खलना बने ।।५।।
गाथार्थ :[तम् ] उस [एकत्वविभक्तं ] एकत्वविभक्त आत्माको [अहं ] मैं [आत्मनः
आत्माके [स्वविभवेन ] निज वैभवसे [दर्शये ] दिखाता हूँ; [यदि ] यदि मैं [दर्शयेयं ] दिखाऊँ
तो [प्रमाणं ] प्रमाण (स्वीकार) करना, [स्खलेयं ] और यदि कहीं चूक जाऊँ तो [छलं ] छल
[न ] नहीं [गृहीतव्यम् ] ग्रहण करना