इह किल सकलोद्भासिस्यात्पदमुद्रितशब्दब्रह्मोपासनजन्मा, समस्तविपक्षक्षोदक्षमाति- निस्तुषयुक्तयवलम्बनजन्मा, निर्मलविज्ञानघनान्तर्निमग्नपरापरगुरुप्रसादीकृ तशुद्धात्मतत्त्वानुशासन- जन्मा, अनवरतस्यन्दिसुन्दरानन्दमुद्रितामन्दसंविदात्मकस्वसंवेदनजन्मा च यः कश्चनापि ममात्मनः स्वो विभवस्तेन समस्तेनाप्ययं तमेकत्वविभक्तमात्मानं दर्शयेऽहमिति बद्धव्यवसायोऽस्मि । किन्तु यदि दर्शयेयं तदा स्वयमेव स्वानुभवप्रत्यक्षेण परीक्ष्य प्रमाणीकर्तव्यम् । यदि तु स्खलेयं तदा तु न छलग्रहणजागरूकैर्भवितव्यम् ।
टीका : — आचार्य कहते हैं कि जो कुछ मेरे आत्माका निजवैभव है, उस सबसे मैं इस एकत्वविभक्त आत्माको दिखाऊँगा, ऐसा मैंने व्यवसाय (उद्यम, निर्णय) किया है । कैसा है मेरे आत्माका निजवैभव ? इस लोकमें प्रगट समस्त वस्तुओंका प्रकाशक और ‘स्यात्’ पदकी मुद्रावाला जो शब्दब्रह्म — अर्हन्तका परमागम — उसकी उपासनासे जिसका जन्म हुआ है । (‘स्यात्’का अर्थ ‘कथंचित्’ है अर्थात् किसी प्रकारसे – किसी अपेक्षासे – कहना । परमागमको शब्दब्रह्म कहनेका कारण यह है कि — अर्हन्तके परमागममें सामान्य धर्मोंके — वचनगोचर समस्त धर्मोंके — नाम आते हैं और वचनसे अगोचर जो विशेषधर्म हैं उनका अनुमान कराया जाता है; इसप्रकार वह सर्व वस्तुओंका प्रकाशक है, इसलिये उसे सर्वव्यापी कहा जाता है, और इसीलिए उसे शब्दब्रह्म कहते हैं ।) पुनः वह निजवैभव कैसा है ? समस्त विपक्ष — अन्यवादियोंके द्वारा गृहीत सर्वथा एकान्तरूप नयपक्षके निराकरणमें समर्थ अतिनिस्तुष निर्बाध युक्ति के अवलम्बनसे उस निजवैभवका जन्म हुआ है , पुनः वह कैसा है ? निर्मल विज्ञानघन आत्मामें अन्तर्निमग्न (अन्तर्लीन) परमगुरु – सर्वज्ञदेव और अपरगुरु — गणधरादिकसे लेकर हमारे गुरुपर्यन्त, उनके प्रसादरूपसे दिया गया जो शुद्धात्मतत्त्वका अनुग्रहपूर्वक उपदेश उससे निजवैभवका जन्म हुआ है । पुनः वह कैसा है ? निरन्तर झरता हुआ — स्वादमें आता हुआ जो सुन्दर आनन्द है, उसकी मुद्रासे युक्त प्रचुरसंवेदनरूप स्वसंवेदनसे निजवैभवका जन्म हुआ है । यों जिस-जिस प्रकारसे मेरे ज्ञानका वैभव है उस समस्त वैभवसे दिखाता हूँ । मैं जो यह दिखाऊँ तो उसे स्वयमेव अपने अनुभव- प्रत्यक्षसे परीक्षा करके प्रमाण करना; और यदि कहीं अक्षर, मात्रा, अलंकार, युक्ति आदि प्रकरणोंमें चूक जाऊँ तो छल (दोष) ग्रहण करनेमें सावधान मत होना । (शास्त्रसमुद्रके बहुतसे प्रकरण हैं, इसलिए यहाँ स्वसंवेदनरूप अर्थ प्रधान है; इसलिए अर्थकी परीक्षा करनी चाहिए ।)
भावार्थ : — आचार्य आगमका सेवन, युक्तिका अवलम्बन, पर और अपर गुरुका उपदेश और स्वसंवेदन — यों चार प्रकारसे उत्पन्न हुए अपने ज्ञानके वैभवसे एकत्व-विभक्त शुद्ध आत्माका स्वरूप दिखाते हैं । हे श्रोताओं ! उसे अपने स्वसंवेदन-प्रत्यक्षसे प्रमाण करो; यदि कहीं किसी प्रकरणमें भूल जाऊँ तो उतने दोषको ग्रहण मत करना । कहनेका आशय यह है कि यहाँ अपना अनुभव प्रधान है; उससे शुद्ध स्वरूपका निश्चय करो ।।५।।