यो हि नाम स्वतःसिद्धत्वेनानादिरनन्तो नित्योद्योतो विशदज्योतिर्ज्ञायक एको भावः स संसारावस्थायामनादिबन्धपर्यायनिरूपणया क्षीरोदकवत्कर्मपुद्गलैः सममेकत्वेऽपि द्रव्यस्वभाव- निरूपणया दुरन्तकषायचक्रोदयवैचित्र्यवशेन प्रवर्तमानानां पुण्यपापनिर्वर्तकानामुपात्तवैश्वरूप्याणां शुभाशुभभावानां स्वभावेनापरिणमनात्प्रमत्तोऽप्रमत्तश्च न भवति । एष एवाशेषद्रव्यान्तरभावेभ्यो भिन्नत्वेनोपास्यमानः शुद्ध इत्यभिलप्यते । न चास्य ज्ञेयनिष्ठत्वेन ज्ञायकत्वप्रसिद्धेः
अब यहाँ यह प्रश्न उठता है कि ऐसा शुद्ध आत्मा कौन है कि जिसका स्वरूप जानना चाहिए ? इसके उत्तरस्वरूप गाथासूत्र कहते हैं : —
गाथार्थ : — [यः तु ] जो [ज्ञायकः भावः ] ज्ञायक भाव है वह [अप्रमत्तः अपि ] अप्रमत्त भी [न भवति ] नहीं और [न प्रमत्तः ] प्रमत्त भी नहीं है, — [एवं ] इसप्रकार [शुद्धं ] इसे शुद्ध [भणन्ति ] कहते हैं; [च यः ] और जो [ज्ञातः ] ज्ञायकरूपसे ज्ञात हुआ [सः तु ] वह तो [सः एव ] वही है, अन्य कोई नहीं ।
टीका : — जो स्वयं अपनेसे ही सिद्ध होनेसे (किसीसे उत्पन्न हुआ न होनेसे) अनादि सत्तारूप है, कभी विनाशको प्राप्त न होनेसे अनन्त है, नित्य-उद्योतरूप होनेसे क्षणिक नहीं है और स्पष्ट प्रकाशमान ज्योति है ऐसा जो ज्ञायक एक ‘भाव’ है वह संसारकी अवस्थामें अनादि बन्धपर्यायकी निरूपणासे (अपेक्षासे) क्षीर-नीरकी भांति कर्मपुद्गलोंके साथ एकरूप होने पर भी द्रव्यके स्वभावकी अपेक्षासे देखा जाय तो दुरन्त कषायचक्रके उदयकी ( – कषायसमूहके अपार उदयोंकी) विचित्रताके वशसे प्रवर्तमान जो पुण्य-पापको उत्पन्न करनेवाले समस्त अनेकरूप शुभाशुभभाव उनके स्वभावरूप परिणमित नहीं होता (ज्ञायकभावसे जड़भावरूप नहीं होता) इसलिये प्रमत्त भी नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है; वही समस्त अन्य द्रव्योंके भावोंसे भिन्नरूपसे उपासित होता हुआ ‘शुद्ध कहलाता है ।