Samaysar (Hindi). Gatha: 217.

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तथा हि
बंधुवभोगणिमित्ते अज्झवसाणोदएसु णाणिस्स
संसारदेहविसएसु णेव उप्पज्जदे रागो ।।२१७।।
बन्धोपभोगनिमित्तेषु अध्यवसानोदयेषु ज्ञानिनः
संसारदेहविषयेषु नैवोत्पद्यते रागः ।।२१७।।
इह खल्वध्यवसानोदयाः कतरेऽपि संसारविषयाः, कतेरऽपि शरीरविषयाः तत्र यतरे
संसारविषयाः ततरे बन्धनिमित्ताः, यतरे शरीरविषयास्ततरे तूपभोगनिमित्ताः यतरे बन्ध-
निमित्तास्ततरे रागद्वेषमोहाद्याः, यतरे तूपभोगनिमित्तास्ततरे सुखदुःखाद्याः अथामीषु सर्वेष्वपि
ज्ञानिनो नास्ति रागः, नानाद्रव्यस्वभावत्वेन टंकोत्कीर्णैक ज्ञायकभावस्वभावस्य तस्य तत्प्रतिषेधात्
कहानजैनशास्त्रमाला ]
निर्जरा अधिकार
३३९
[तेन ] इसलिये [विद्वान् किञ्चन कांक्षति न ] ज्ञानी कुछ भी वाँछा नहीं करता; [सर्वतः अपि
अतिविरक्तिम् उपैति ]
सबके प्रति अत्यन्त विरक्तताको (वैराग्यभावको) प्राप्त होता है
भावार्थ :अनुभवगोचर वेद्य-वेदक विभावोंमें काल भेद है, उनका मिलाप नहीं होता,
(क्योंकि वे कर्मके निमित्तसे होते हैं, इसलिये अस्थिर हैं); इसलिये ज्ञानी आगामी काल सम्बन्धी
वाँछा क्यों करे ?
।१४७।
इसप्रकार ज्ञानीको सर्व उपभोगोंके प्रति वैराग्य है, यह कहते हैं :
संसारतनसम्बन्धि, अरु बन्धोपभोगनिमित्त जो
उन सर्व अध्यवसानउदय जु, राग होय न ज्ञानिको ।।२१७।।
गाथार्थ :[बन्धोपभोगनिमित्तेषु ] बंध और उपभोगके निमित्तभूत [संसारदेहविषयेषु ]
संसारसम्बन्धी और देहसम्बन्धी [अध्यवसानोदयेषु ] अध्यवसानके उदयोंमें [ज्ञानिनः ] ज्ञानीके
[रागः ] राग [न एव उत्पद्यते ] उत्पन्न ही नहीं होता
टीका :इस लोकमें जो अध्यवसानके उदय हैं वे कितने ही तो संसारसम्बन्धी
हैं और कितने ही शरीरसम्बन्धी हैं उनमेंसे जितने संसारसम्बन्धी हैं उतने बन्धके निमित्त
हैं और जितने शरीरसम्बन्धी हैं उतने उपभोगके निमित्त हैं जितने बन्धके निमित्त हैं उतने
तो रागद्वेषमोहादिक हैं और जितने उपभोगके निमित्त हैं उतने सुखदुःखादिक हैं इन सभीमें
ज्ञानीके राग नहीं है; क्योंकि वे सभी नाना द्रव्योंके स्वभाव हैं इसलिये, टंकोत्कीर्ण एक