यथा खलु शंखस्य परद्रव्यमुपभुंजानस्यापि न परेण श्वेतभावः कृष्णः कर्तुं शक्येत, परस्य परभावत्वनिमित्तत्वानुपपत्तेः, तथा किल ज्ञानिनः परद्रव्यमुपभुंजानस्यापि न परेण ज्ञानमज्ञानं कर्तुं शक्येत, परस्य परभावत्वनिमित्तत्वानुपपत्तेः । ततो ज्ञानिनः परापराधनिमित्तो नास्ति बन्धः ।
गाथार्थ : — [शंखस्य ] जैसे शंख [विविधानि ] अनेक प्रकारके [सचित्ताचित्तमिश्रितानि ] सचित्त, अचित्त और मिश्र [द्रव्याणि ] द्रव्योंको [भुञ्जानस्य अपि ] भोगता है — खाता है तथापि [श्वेतभावः ] उसका श्वेतभाव [कृष्णकः कर्तुं न अपि शक्यते ] (किसीके द्वारा) काला नहीं किया जा सकता, [तथा ] इसीप्रकार [ज्ञानिनः अपि ] ज्ञानी भी [विविधानि ] अनेक प्रकारके [सचित्ताचित्तमिश्रितानि ] सचित्त, अचित्त और मिश्र [द्रव्याणि ] द्रव्योंको [भुञ्जानस्य अपि ] भोगे तथापि उसके [ज्ञानं ] ज्ञानको [अज्ञानतां नेतुम् न शक्यम् ] (किसीके द्वारा) अज्ञानरूप नहीं किया जा सकता ।
[यदा ] जब [सः एव शंखः ] वही शंख (स्वयं) [तकं श्वेतस्वभावं ] उस श्वेत स्वभावको [प्रहाय ] छोड़कर [कृष्णभावं गच्छेत् ] कृ ष्णभावको प्राप्त होता है (कृ ष्णरूप परिणमित होता है) [तदा ] तब [शुक्लत्वं प्रजह्यात् ] शुक्लत्वको छोड़ देता है (अर्थात् काला हो जाता है), [तथा ] इसीप्रकार [खलु ] वास्तवमें [ज्ञानी अपि ] ज्ञानी भी (स्वयं) [यदा ] जब [तकं ज्ञानस्वभावं ] उस ज्ञानस्वभावको [प्रहाय ] छोड़कर [अज्ञानेन ] अज्ञानरूप [परिणतः ] परिणमित होता है [तदा ] तब [अज्ञानतां ] अज्ञानताको [गच्छेत् ] प्राप्त होता है ।
टीका : — जैसे यदि शंख परद्रव्यको भोगे – खाये तथापि उसका श्वेतपन परके द्वारा काला नहीं किया जा सकता, क्योंकि पर अर्थात् परद्रव्य किसी द्रव्यको परभावस्वरूप करनेका निमित्त (अर्थात् कारण) नहीं हो सकता, इसीप्रकार यदि ज्ञानी परद्रव्यको भोगे तो भी उसका ज्ञान परके