परिणमते तदास्य श्वेतभावः स्वयंकृतः कृष्णभावः स्यात्, तथा यदा स एव ज्ञानी
परद्रव्यमुपभुंजानोऽनुपभुंजानो वा ज्ञानं प्रहाय स्वयमेवाज्ञानेन परिणमते तदास्य ज्ञानं
स्वयंकृतमज्ञानं स्यात् । ततो ज्ञानिनो यदि (बंधः) स्वापराधनिमित्तो बन्धः ।
भुंक्षे हन्त न जातु मे यदि परं दुर्भुक्त एवासि भोः ।
ज्ञानं सन्वस बन्धमेष्यपरथा स्वस्यापराधाद् ध्रुवम् ।।१५१।।
करनेका निमित्त नहीं हो सकता । इसलिये ज्ञानीको परके अपराधके निमित्तसे बन्ध नहीं होता ।
और जब वही शंख, परद्रव्यको भोगता हुआ अथवा न भोगता हुआ, श्वेतभावको छोड़कर स्वयमेव कृष्णरूप परिणमित होता है तब उसका श्वेतभाव स्वयंकृत कृष्णभाव होता है (अर्थात् स्वयमेव किये गये कृष्णभावरूप होता है), इसीप्रकार जब वह ज्ञानी, परद्रव्यको भोगता हुआ अथवा न भोगता हुआ, ज्ञानको छोड़कर स्वयमेव अज्ञानरूप परिणमित होता है तब उसका ज्ञान स्वयंकृत अज्ञान होता है । इसलिये ज्ञानीके यदि (बन्ध) हो तो वह अपने ही अपराधके निमित्तसे (अर्थात् स्वयं ही अज्ञानरूप परिणमित हो तब) बन्ध होता है ।
भावार्थ : — जैसे श्वेत शंख परके भक्षणसे काला नहीं होता, किन्तु जब वह स्वयं ही कालिमारूप परिणमित होता है तब काला हो जाता है, इसीप्रकार ज्ञानी परके उपभोगसे अज्ञानी नहीं होता, किन्तु जब स्वयं ही अज्ञानरूप परिणमित होता है तब अज्ञानी होता है और तब बन्ध करता है ।।२२० से २२३।।
श्लोकार्थ : — [ज्ञानिन् ] हे ज्ञानी, [जातु किचिंत् कर्म कर्तुम् उचितं न ] तुझेे क भी कोई भी कर्म क रना उचित नहीं है [तथापि ] तथापि [यदि उच्यते ] यदि तू यह कहे कि ‘‘[परं मे जातु न, भुंक्षे ] परद्रव्य मेरा क भी भी नहीं है और मैं उसे भोगता हूँं’’, [भोः दुर्भुक्तः एव असि ] तो तुझसे क हा जाता है कि हे भाई, तू खराब प्रकारसे भोगनेवाला है; [हन्त ] जो तेरा नहीं है उसे तू भोगता है यह महा खेदकी बात है ! [यदि उपभोगतः बन्धः न स्यात् ] यदि तू क हे कि ‘सिद्धान्तमें यह कहा है कि परद्रव्यके उपभोगसे बन्ध नहीं होता, इसलिये भोगता हूँ ’, [तत् किं