Samaysar (Hindi). Kalash: 156.

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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
(शार्दूलविक्रीडित)
एषैकैव हि वेदना यदचलं ज्ञानं स्वयं वेद्यते
निर्भेदोदितवेद्यवेदकबलादेकं सदानाकुलैः
नैवान्यागतवेदनैव हि भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निश्शंक : सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति
।।१५६।।
विन्दति ] वह तो स्वयं निरन्तर निःशङ्क वर्तता हुआ सहज ज्ञानका (अपने ज्ञानस्वभावका) सदा
अनुभव करता है

भावार्थ :‘इस भवमें जीवन पर्यन्त अनुकूल सामग्री रहेगी या नहीं ?’ ऐसी चिन्ता रहना इहलोकका भय है ‘परभवमें मेरा क्या होगा ?’ ऐसी चिन्ताका रहना परलोकका भय है ज्ञानी जानता है कियह चैतन्य ही मेरा एक, नित्य लोक है जो कि सदाकाल प्रगट है इसके अतिरिक्त दूसरा कोई लोक मेरा नहीं है यह मेरा चैतन्यस्वरूप लोक किसीके बिगाड़े नहीं बिगड़ता ऐसा जाननेवाले ज्ञानीके इस लोकका अथवा परलोकका भय कहाँसे हो ? कभी नहीं हो सकता वह तो अपनेको स्वाभाविक ज्ञानरूप ही अनुभव करता है ।१५५।

अब वेदनाभयका काव्य कहते हैं :

श्लोकार्थ :[निर्भेद-उदित-वेद्य-वेदक -बलात् ] अभेदस्वरूप वर्तनेवाले वेद्य -वेदक के बलसे (वेद्य और वेदक अभेद ही होते हैं ऐसी वस्तुस्थितिके बलसे) [यद् एकं अचलं ज्ञानं स्वयं अनाकु लैः सदा वेद्यते ] एक अचल ज्ञान ही स्वयं निराकु ल पुरुषोंके द्वारा (ज्ञानयोंके द्वारा) सदा वेदनमें आता है, [एषा एका एव हि वेदना ] यह एक ही वेदना (ज्ञानवेदन) ज्ञानीयोंके है (आत्मा वेदक है और ज्ञान वेद्य है ) [ज्ञानिनः अन्या आगत-वेदना एव हि न एव भवेत् ] ज्ञानीके दूसरी कोई आगत (पुद्गलसे उत्पन्न) वेदना होती ही नहीं, [तद्-भीः कु तः ] इसलिए उसे वेदनाका भय क हाँसे हो सकता है ? [सः स्वयं सततं निश्शंक : सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ] वह तो स्वयं निरन्तर निःशङ्क वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है

भावार्थ :सुख-दुःखको भोगना वेदना है ज्ञानीके अपने एक ज्ञानमात्र स्वरूपका ही उपभोग है वह पुद्गलसे होनेवाली वेदनाको वेदना ही नहीं समझता इसलिए ज्ञानीके वेदनाभय नहीं है वह तो सदा निर्भय वर्तता हुआ ज्ञानका अनुभव करता है ।१५६।

अब अरक्षाभयका काव्य कहते हैं :