येन नित्यमेव सम्यग्द्रष्टयः सकलकर्मफलनिरभिलाषाः सन्तोऽत्यन्तकर्मनिरपेक्षतया वर्तन्ते, तेन नूनमेते अत्यन्तनिश्शंक दारुणाध्यवसायाः सन्तोऽत्यन्तनिर्भयाः सम्भाव्यन्ते ।
श्चिल्लोकं स्वयमेव केवलमयं यल्लोकयत्येककः ।
निश्शंक : सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ।।१५५।।
गाथार्थ : — [सम्यग्दृष्टयः जीवाः ] सम्यग्दृष्टि जीव [निश्शंकाः भवन्ति ] निःशंक होते हैं, [तेन ] इसलिये [निर्भयाः ] निर्भय होते हैं; [तु ] और [यस्मात् ] क्योंकि [सप्तभयविप्रमुक्ताः ] वे सप्त भयोंसे रहित होते हैं, [तस्मात् ] इसलिये [निःशंकाः ] निःशंक होते हैं ( – अडोल होते हैं) ।
टीका : — क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव सदा ही सर्व कर्मोंके फलके प्रति निरभिलाष होते हैं, इसलिये वे कर्मके प्रति अत्यन्त निरपेक्षतया वर्तते हैं, इसलिये वास्तवमें वे अत्यंत निःशंक दारुण (सुदृढ़) निश्चयवाले होनेसे अत्यन्त निर्भय हैं ऐसी सम्भावना की जाती है (अर्थात् ऐसा योग्यतया माना जाता है ) ।।२२८।।
अब सात भयोंके कलशरूप काव्य कहे जाते हैं, उसमेंसे पहले इहलोक और परलोकके भयोंका एक काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [एषः ] यह चित्स्वरूप लोक ही [विविक्तात्मनः ] भिन्न आत्माका (परसे भिन्नरूप परिणमित होनेवाले आत्माका) [शाश्वतः एक : सक ल-व्यक्त : लोक : ] शाश्वत, एक और सक लव्यक्त ( – सर्व कालमें प्रगट) लोक है; [यत् ] क्योंकि [के वलम् चित्-लोकं ] मात्र चित्स्वरूप लोक को [अयं स्वयमेव एक क : लोक यति ] यह ज्ञानी आत्मा स्वयमेव एकाकी देखता है — अनुभव करता है । यह चित्स्वरूप लोक ही तेरा है, [तद्-अपरः ] उससे भिन्न दूसरा कोई लोक — [अयं लोक : अपरः ] यह लोक या परलोक — [तव न ] तेरा नहीं है ऐसा ज्ञानी विचार करता है, जानता है, [तस्य तद्-भीः कु तः अस्ति ] इसलिये ज्ञानीको इस लोकका तथा परलोक का भय क हाँसे हो ? [सः स्वयं सततं निश्शंक : सहजं ज्ञानं सदा