Samaysar (Hindi). Kalash: 159.

< Previous Page   Next Page >


Page 354 of 642
PDF/HTML Page 387 of 675

 

३५४
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
(शार्दूलविक्रीडित)
प्राणोच्छेदमुदाहरन्ति मरणं प्राणाः किलास्यात्मनो
ज्ञानं तत्स्वयमेव शाश्वततया नोच्छिद्यते जातुचित्
तस्यातो मरणं न किंचन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निश्शंक सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति
।।१५९।।
इसलिय आत्माकी किंचित्मात्र भी अगुप्तता न होनेसे [ज्ञानिनः तद्-भीः कुतः ] ज्ञानीको अगुप्तिका
भय क हाँसे हो सकता है ? [सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ] वह तो स्वयं
निरन्तर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है

भावार्थ :‘गुप्ति’ अर्थात् जिसमें कोई चोर इत्यादि प्रवेश न कर सके ऐसा किला, भोंयरा (तलघर) इत्यादि; उसमें प्राणी निर्भयतासे निवास कर सकता है ऐसा गुप्त प्रदेश न हो और खुला स्थान हो तो उसमें रहनेवाले प्राणीको अगुप्तताके कारण भय रहता है ज्ञानी जानता है किवस्तुके निज स्वरूपमें कोई दूसरा प्रवेश नहीं कर सकता, इसलिये वस्तुका स्वरूप ही वस्तुकी परम गुप्ति अर्थात् अभेद्य किला है पुरुषका अर्थात् आत्माका स्वरूप ज्ञान है; उस ज्ञानस्वरूपमें रहा हुआ आत्मा गुप्त है, क्योंकि ज्ञानस्वरूपमें दूसरा कोई प्रवेश नहीं कर सकता ऐसा जाननेवाले ज्ञानीको अगुप्तताका भय कहाँसे हो सकता है ? वह तो निःशंक वर्तता हुआ अपने स्वाभाविक ज्ञानस्वरूपका निरन्तर अनुभव करता है ।१५८।

अब मरणभयका काव्य कहते हैं :

श्लोकार्थ :[प्राणोच्छेदम् मरणं उदाहरन्ति ] प्राणोंके नाशको (लोग) मरण क हते हैं [अस्य आत्मनः प्राणाः किल ज्ञानं ] निश्चयसे आत्माके प्राण तो ज्ञान है [तत् स्वयमेव शाश्वततया जातुचित् न उच्छिद्यते ] वह (ज्ञान) स्वयमेव शाश्वत होनेसे उसका क दापि नाश नहीं होता; [अतः तस्य मरणं किंचन न भवेत् ] इसलिये आत्माका मरण किञ्चित्मात्र भी नहीं होता [ज्ञानिनः तद्- भीः कुतः ] अतः (ऐसा जाननेवाले) ज्ञानीको मरणका भय क हाँसे हो सकता है ? [सः स्वयं सततं निश्शंक : सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ] वह तो स्वयं निरन्तर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है

भावार्थ :इन्द्रियादि प्राणोंके नाश होनेको लोग मरण कहते हैं किन्तु परमार्थतः आत्माके इन्द्रियादिक प्राण नहीं हैं, उसके तो ज्ञान प्राण हैं ज्ञान अविनाशी हैउसका नाश नहीं होता; अतः आत्माको मरण नहीं है ज्ञानी ऐसा जानता है, इसलिये उसे मरणका भय नहीं है; वह तो निःशंक वर्तता हुआ अपने ज्ञानस्वरूपका निरन्तर अनुभव करता है ।१५९।