यावत्तावदिदं सदैव हि भवेन्नात्र द्वितीयोदयः ।
निश्शंक : सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ।।१६०।।
श्लोकार्थ : — [एतत् स्वतः सिद्धं ज्ञानम् किल एकं ] यह स्वतःसिद्ध ज्ञान एक है, [अनादि ] अनादि है, [अनन्तम् ] अनन्त है, [अचलं ] अचल है । [इदं यावत् तावत् सदा एव हि भवेत् ] वह जब तक है तब तक सदा ही वही है, [अत्र द्वितीयोदयः न ] उसमें दूसरेका उदय नहीं है । [तत् ] इसलिये [अत्र आकस्मिकम् किंचन न भवेत् ] इस ज्ञानमें आक स्मिक कुछ भी नहीं होता । [ज्ञानिनः तद्-भीः कुतः ] ऐसा जाननेवाले ज्ञानीको अक स्मात्का भय क हाँसे हो सकता है ? [सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ] वह तो स्वयं निरन्तर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है ।
भावार्थ : — ‘यदि कुछ अनिर्धारित अनिष्ट एकाएक उत्पन्न होगा तो ?’ ऐसा भय रहना आकस्मिकभय है । ज्ञानी जानता है कि — आत्माका ज्ञान स्वतःसिद्ध, अनादि, अनंत, अचल, एक है । उसमें दूसरा कुछ उत्पन्न नहीं हो सकता; इसलिये उसमें कुछ भी अनिर्धारित कहाँसे होगा अर्थात् अकस्मात् कहाँसे होगा ? ऐसा जाननेवाले ज्ञानीको आकस्मिक भय नहीं होता, वह तो निःशंक वर्तता हुआ अपने ज्ञानभावका निरन्तर अनुभव करता है ।
होता है तथा उसके निमित्तसे उनके भय होता हुआ भी देखा जाता है; तब फि र ज्ञानी निर्भय कैसे है ?
समाधान : — भयप्रकृतिके उदयके निमित्तसे ज्ञानीको भय उत्पन्न होता है । और अन्तरायके प्रबल उदयसे निर्बल होनेके कारण उस भयकी वेदनाको सहन न कर सकनेसे ज्ञानी उस भयका इलाज भी करता है । परन्तु उसे ऐसा भय नहीं होता कि जिससे जीव स्वरूपके ज्ञानश्रद्धानसे च्युत हो जाये । और जो भय उत्पन्न होता है वह मोहकर्मकी भय नामक प्रकृतिका दोष है; ज्ञानी स्वयं उसका स्वामी होकर कर्ता नहीं होता, ज्ञाता ही रहता है । इसलिये ज्ञानीके भय नहीं है ।१६०।