Samaysar (Hindi). Gatha: 229 Kalash: 161.

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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
(मन्दाक्रान्ता)
टंकोत्कीर्णस्वरसनिचितज्ञानसर्वस्वभाजः ०
सम्यग्दृष्टेर्यदिह सकलं घ्नन्ति लक्ष्माणि कर्म
तत्तस्यास्मिन्पुनरपि मनाक्कर्मणो नास्ति बन्धः
पूर्वोपात्तं तदनुभवतो निश्चितं निर्जर्रैव
।।१६१।।
जो चत्तारि वि पाए छिंददि ते कम्मबंधमोहकरे
सो णिस्संको चेदा सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ।।२२९।।

अब आगेकी (सम्यग्दृष्टिके निःशंकित आदि चिह्नों सम्बन्धी) गाथाओंका सूचक काव्य कहते हैं :

श्लोकार्थ :[टंकोत्कीर्ण-स्वरस-निचित-ज्ञान-सर्वस्व-भाजः सम्यग्दृष्टेः ] टंकोत्कीर्ण निजरससे परिपूर्ण ज्ञानके सर्वस्वको भोगनेवाले सम्यग्दृष्टिके [यद् इह लक्ष्माणि ] जो निःशंकि त आदि चिह्न हैं वे [सकलं कर्म ] समस्त क र्मोंको [घ्नन्ति ] नष्ट करते हैं; [तत् ] इसलिये, [अस्मिन् ] क र्मका उदय वर्तता होने पर भी, [तस्य ] सम्यग्दृष्टिको [पुनः ] पुनः [कर्मणः बन्धः ] क र्मका बन्ध [मनाक् अपि ] किञ्चित्मात्र भी [नास्ति ] नहीं होता, [पूर्वोपात्तं ] परंतु जो क र्म पहले बन्धा था [तद्-अनुभवतः ] उसके उदयको भोगने पर उसको [निश्चितं ] नियमसे [निर्जरा एव ] उस क र्मकी निर्जरा ही होती है

भावार्थ :सम्यग्दृष्टि पहले बन्धी हुई भय आदि प्रकृतियोंके उदयको भोगता है तथापि निःशंकित आदि गुणोंके विद्यमान होनेसे +शंकादिकृत (शंकादिके निमित्तसे होनेवाला) बन्ध नहीं होता, किन्तु पूर्वकर्मकी निर्जरा ही होती है ।१६१।

अब इस कथनको गाथाओं द्वारा कहते हैं, उसमेंसे पहले निःशंकित अंगकी (अथवा निःशंकित गुणकीचिह्नकी ) गाथा इसप्रकार है :

जो कर्मबन्धनमोहकर्त्ता, पाद चारों छेदता
चिन्मूर्ति वो शङ्कारहित, सम्यक्त्वदृष्टी जानना ।।२२९।।
१ निःशंकित=सन्देह अथवा भय रहित २ +शंका=सन्देह; कल्पित भय