यतो हि सम्यग्द्रष्टिः टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन कर्मबन्धशंकाकरमिथ्यात्वादि- भावाभावान्निश्शंक :, ततोऽस्य शंकाकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्जर्रैव ।
गाथार्थ : — [यः चेतयिता ] जो १चेतयिता, [कर्मबन्धमोहकरान् ] क र्मबंध सम्बन्धी मोह क रनेवाले (अर्थात् जीव निश्चयतः क र्मके द्वारा बँधा हुआ है ऐसा भ्रम क रनेवाले) [तान् चतुरः अपि पादान् ] मिथ्यात्वादि भावरूप चारों पादोंको [छिनत्ति ] छेदता है, [सः ] उसको [निश्शंक : ] निःशंक [सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये ।
टीका : — क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण कर्मबन्ध सम्बन्धी शंका करनेवाले (अर्थात् जीव निश्चयतः कर्मसे बँधा हुआ है ऐसा सन्देह अथवा भय करनेवाले) मिथ्यात्वादि भावोंका (उसको) अभाव होनेसे, निःशंक है इसलिये उसे शंकाकृत बन्ध नहीं, किन्तु निर्जरा ही है ।
भावार्थ : — सम्यग्दृष्टिको जिस कर्मका उदय आता है उसका वह, स्वामित्वके अभावके कारण, कर्ता नहीं होता । इसलिये भयप्रकृतिका उदय आने पर भी सम्यग्दृष्टि जीव निःशंक रहता है, स्वरूपसे च्युत नहीं होता । ऐसा होनेसे उसे शंकाकृत बन्ध नहीं होता, कर्म रस देकर खिर जाते हैं ।।२२९।।
गाथार्थ : — [यः चेतयिता ] जो चेतयिता [कर्मफलेषु ] क र्मोंके फलोंके प्रति [तथा ] १ चेतयिता=चेतनेवाला; जानने – देखनेवाला; आत्मा ।