यतो हि सम्यग्दृष्टिः टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि कर्मफलेषु सर्वेषु वस्तुधर्मेषु
च कांक्षाभावान्निष्कांक्षः, ततोऽस्य कांक्षाकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्ज̄रैव ।
जो ण करेदि दुगुंछं चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं ।
सो खलु णिव्विदिगिच्छो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ।।२३१।।
यो न करोति जुगुप्सां चेतयिता सर्वेषामेव धर्माणाम् ।
स खलु निर्विचिकित्सः सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्यः ।।२३१।।
यतो हि सम्यग्दृष्टिः टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि वस्तुधर्मेषु जुगुप्सा-
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
तथा [सर्वधर्मेषु ] सर्व धर्मोंके प्रति [कांक्षां ] कांक्षा [न तु करोति ] नहीं करता [सः ] उसको
[निष्कांक्षः सम्यग्दृष्टिः ] निष्कांक्ष सम्यग्दृष्टि [ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये ।
टीका : — क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण सभी
कर्मफलोंके प्रति तथा समस्त वस्तुधर्मोंके प्रति कांक्षाका (उसे) अभाव होनेसे, निष्कांक्ष
(निर्वांछक) है, इसलिये उसे कांक्षाकृत बन्ध नहीं, किन्तु निर्जरा ही है ।
भावार्थ : — सम्यग्दृष्टिको समस्त कर्मफलोंकी वाँछा नहीं होती; तथा उसे सर्व धर्मोंकी
वाँछा नहीं होती, अर्थात् सुवर्णत्व, पाषाणत्व इत्यादि तथा निन्दा, प्रशंसा आदिके वचन इत्यादिक
वस्तुधर्मोंकी अर्थात् पुद्गलस्वभावोंकी उसे वाँछा नहीं है — उसके प्रति समभाव है, अथवा
अन्यमतावलम्बियोंके द्वारा माने गये अनेक प्रकारके सर्वथा एकान्तपक्षी व्यवहारधर्मोंकी उसे वाँछा
नहीं है — उन धर्मोंका आदर नहीं है । इसप्रकार सम्यग्दृष्टि वाँछारहित होता है, इसलिये उसे वाँछासे
होनेवाला बन्ध नहीं होता । वर्तमान वेदना सही नहीं जाती, इसलिये उसे मिटानेके उपचारकी वाँछा
सम्यग्दृष्टिको चारित्रमोहके उदयके कारण होती है, किन्तु वह उस वाँछाका कर्ता स्वयं नहीं होता,
कर्मोदय समझकर उसका ज्ञाता ही रहता है; इसलिये उसे वाँछाकृत बन्ध नहीं होता ।।२३०।।
अब निर्विचिकित्सा गुणकी गाथा कहते हैं : —
सब वस्तुधर्मविषैं जुगुप्साभाव जो नहिं धारता ।
चिन्मूर्ति निर्विचिकित्स वह, सद्दृष्टि निश्चय जानना ।।२३१।।
गाथार्थ : — [यः चेतयिता ] जो चेतयिता [सर्वेषाम् एव ] सभी [धर्माणाम् ] धर्मों
(वस्तुके स्वभावों)के प्रति [जुगुप्सां ] जुगुप्सा (ग्लानि) [न करोति ] नहीं करता [सः ] उसको
[खलु ] निश्चयसे [निर्विचिकित्सः ] निर्विचिकित्स ( – विचिकित्सादोषसे रहित) [सम्यग्दृष्टिः ]