ऽभावान्निर्विचिकित्सः, ततोऽस्य विचिकित्साकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्ज̄रैव ।
जो हवदि असम्मूढो चेदा सद्दिट्ठि सव्वभावेसु ।
सो खलु अमूढदिट्ठी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ।।२३२।।
यो भवति असम्मूढः चेतयिता सद्दृष्टिः सर्वभावेषु ।
स खलु अमूढद्रष्टिः सम्यग्द्रष्टिर्ज्ञातव्यः ।।२३२।।
यतो हि सम्यग्द्रष्टिः टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि भावेषु
मोहाभावादमूढद्रष्टिः, ततोऽस्य मूढद्रष्टिकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्ज̄रैव ।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
निर्जरा अधिकार
३५९
सम्यग्दृष्टि [ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये ।
टीका : — क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण सभी
वस्तुधर्मोंके प्रति जुगुप्साका (उसे) अभाव होनेसे, निर्विचिकित्स ( – जुगुप्सारहित — ग्लानिरहित)
है, इसलिये उसे विचिकित्साकृत बन्ध नहीं, किन्तु निर्जरा ही है ।
भावार्थ : — सम्यग्दृष्टि वस्तुके धर्मोंके प्रति (अर्थात् क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण आदि भावोंके
प्रति तथा विष्टा आदि मलिन द्रव्योंके प्रति) जुगुप्सा नहीं करता । यद्यपि उसके जुगुप्सा नामक
कर्मप्रकृतिका उदय आता है तथापि वह स्वयं उसका कर्ता नहीं होता, इसलिये उसे जुगुप्साकृत
बन्ध नहीं होता, परन्तु प्रकृति रस देकर खिर जाती है, इसलिये निर्जरा ही होती है ।।२३१।।
अब अमूढदृष्टि अंगकी गाथा कहते हैं : —
सम्मूढ़ नहिं सब भावमें जो, — सत्यदृष्टी धारता ।
वह मूढ़दृष्टिविहीन सम्यग्दृष्टि निश्चय जानना ।।२३२।।
गाथार्थ : — [यः चेतयिता ] जो चेतयिता [सर्वभावेषु ] समस्त भावोंमें [असम्मूढः ]
अमूढ़ है — [सद्दृष्टिः ] यथार्थ दृष्टिवाला [भवति ] है, [सः ] उसको [खलु ] निश्चयसे
[अमूढ+ष्टिः ] अमूढ़दृष्टि [सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये ।
टीका : — क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण सभी भावोंमें
मोहका (उसे) अभाव होनेसे अमूढ़दृष्टि है, इसलिये उसे मूढदृष्टिकृत बन्ध नहीं, किन्तु निर्जरा ही है ।
भावार्थ : — सम्यग्दृष्टि समस्त पदार्थोंके स्वरूपको यथार्थ जानता है; उसे रागद्वेषमोहका
अभाव होनेसे किसी भी पदार्थ पर उसकी अयथार्थ दृष्टि नहीं पड़ती । चारित्रमोहके उदयसे