यतो हि सम्यग्द्रष्टिः टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन समस्तात्मशक्तीनामुपबृंहणादुप- बृंहकः, ततोऽस्य जीवशक्ति दौर्बल्यकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्जर्रैव । इष्टानिष्ट भाव उत्पन्न हों तथापि उसे उदयकी बलवत्ता जानकर वह उन भावोंका स्वयं कर्ता नहीं होता, इसलिए उसे मूढ़दृष्टिकृत बन्ध नहीं होता, परन्तु प्रकृति रस देकर खिर जाती है, इसलिए निर्जरा ही होती है ।।२३२।।
गाथार्थ : — [यः ] जो (चेतयिता) [सिद्धभक्ति युक्त : ] सिद्धकी (शुद्धात्माकी) भक्तिसे युक्त है [तु ] और [सर्वधर्माणाम् उपगूहनकः ] पर वस्तुके सर्व धर्मोंको गोपनेवाला है (अर्थात् रागादि परभावोंमें युक्त नहीं होता) [सः ] उसको [उपगूहनकारी ] उपगूहन करनेवाला [सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये ।
टीका : — क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण समस्त आत्मशक्तियोंकी वृद्धि करता है इसलिये, उपबृंहक अर्थात् आत्मशक्ति बढ़ानेवाला है, इसलिये उसे जीवकी शक्तिकी दुर्बलतासे (मन्दतासे) होनेवाले बन्ध नहीं, किन्तु निर्जरा ही है ।
भावार्थ : — सम्यग्दृष्टि उपगूहनगुणयुक्त है । उपगूहनका अर्थ छिपाना है । यहाँ निश्चयनयको प्रधान करके कहा है कि सम्यग्दृष्टिने अपना उपयोग सिद्धभक्तिमें लगाया हुआ है, और जहाँ उपयोग सिद्धभक्तिमें लगाया वहाँ अन्य धर्मों पर दृष्टि ही नहीं रही, इसलिये वह समस्त अन्य धर्मोंका गोपनेवाला और आत्मशक्तिका बढ़ानेवाला है ।
इस गुणका दूसरा नाम ‘उपबृंहण’ भी है । उपबृंहणका अर्थ है बढ़ाना । सम्यग्दृष्टिने अपना उपयोग सिद्धके स्वरूपमें लगाया है, इसलिये उसके आत्माकी समस्त शक्तियाँ बढ़ती हैं — आत्मा