यतो हि सम्यग्द्रष्टिः टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन मार्गात्प्रच्युतस्यात्मनो मार्गे एव स्थितिकरणात् स्थितिकारी, ततोऽस्य मार्गच्यवनकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्जर्रैव । पुष्ट होता है, इसलिए वह उपबृंहण गुणवाला है ।
इसप्रकार सम्यग्दृष्टिके आत्मशक्तिकी वृद्धि होती है, इसलिये उसे दुर्बलतासे जो बन्ध होता था वह नहीं होता, निर्जरा ही होती है । यद्यपि जब तक अन्तरायका उदय है तब तक निर्बलता है तथापि उसके अभिप्रायमें निर्बलता नहीं है, किन्तु अपनी शक्तिके अनुसार कर्मोदयको जीतनेका महान् उद्यम वर्तता है ।।२३३।।
गाथार्थ : — [यः चेतयिता ] जो चेतयिता [उन्मार्गं गच्छन्तं ] उन्मार्गमें जाते हुए [स्वकम् अपि ] अपने आत्माको भी [मार्गे ] मार्गमें [स्थापयति ] स्थापित करता है, [सः ] वह [स्थितिकरणयुक्त : ] स्थितिक रणयुक्त [सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये ।
टीका : — क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण, यदि अपना आत्मा मार्गसे (सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप मोक्षमार्गसे) च्युत हो तो उसे मार्गमें ही स्थित कर देता है इसलिए, स्थितिकारी (स्थिति करनेवाला) है, अतः उसे मार्गसे च्युत होनेके कारण होनेवाला बन्ध नहीं, किन्तु निर्जरा ही है ।
भावार्थ : — जो, अपने स्वरूपरूप मोक्षमार्गसे च्युत होते हुए अपने आत्माको मार्गमें (मोक्षमार्गमें) स्थित करता है वह स्थितिकरणगुणयुक्त है । उसे मार्गसे च्युत होनेके कारण होनेवाला बन्ध नहीं होता, किन्तु उदयागत कर्म रस देकर खिर जाते हैं, इसलिए निर्जरा ही होती है ।।२३४।।