★अनुपलब्धि=प्रत्यक्ष नहीं होना वह; अज्ञान; अप्राप्ति ।
जो कुणदि वच्छलत्तं तिण्हं साहूण मोक्खमग्गम्हि ।
सो वच्छलभावजुदो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ।।२३५।।
यः करोति वत्सलत्वं त्रयाणां साधूनां मोक्षमार्गे ।
स वत्सलभावयुतः सम्यग्द्रष्टिर्ज्ञातव्यः ।।२३५।।
यतो हि सम्यग्द्रष्टिः टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां स्व-
स्मादभेदबुद्धया सम्यग्दर्शनान्मार्गवत्सलः, ततोऽस्य मार्गानुपलम्भकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु
निर्ज̄रैव ।
३६२
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
अब वात्सल्य गुणकी गाथा कहते हैं : —
जो मोक्षपथमें ‘साधु’त्रयका वत्सलत्व करे अहा !
चिन्मूर्ति वह वात्सल्ययुत, सम्यक्तदृष्टी जानना ।।२३५।।
गाथार्थ : — [यः ] जो (चेतयिता) [मोक्षमार्गे ] मोक्षमार्गमें स्थित [त्रयाणां
साधूनां ] सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप तीन साधकों — साधनोंके प्रति (अथवा व्यवहारसे
आचार्य, उपाध्याय और मुनि — इन तीन साधुओंके प्रति) [वत्सलत्वं करोति ] वात्सल्य क रता
है, [सः ] वह [वत्सलभावयुतः ] वत्सलभावसे युक्त [सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [ज्ञातव्यः ]
जानना चाहिये ।
टीका : — क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण सम्यग्दर्शन-
ज्ञान-चारित्रको अपनेसे अभेदबुद्धिसे सम्यक्तया देखता ( – अनुभव करता) है इसलिये,
मार्गवत्सल अर्थात् मोक्षमार्गके प्रति अति प्रीतिवाला है , इसलिये उसे मार्गकी ★अनुपलब्धिसे
होनेवाला बन्ध नहीं, किन्तु निर्जरा ही है ।
भावार्थ : — वत्सलत्वका अर्थ है प्रीतिभाव । जो जीव मोक्षमार्गरूप अपने स्वरूपके
प्रति प्रीतिवाला – अनुरागवाला हो उसे मार्गकी अप्राप्तिसे होनेवाला बन्ध नहीं होता, परन्तु कर्म
रस देकर खिर जाते हैं, इसलिये निर्जरा ही होती है ।।२३५।।