यतो हि सम्यग्द्रष्टिः, टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन ज्ञानस्य समस्तशक्ति प्रबोधेन प्रभावजननात्प्रभावनाकरः, ततोऽस्य ज्ञानप्रभावनाऽप्रकर्षकृतो नास्ति बन्धः, किन्तु निर्जर्रैव ।
गाथार्थ : — [यः चेतयिता ] जो चेतयिता [विद्यारथम् आरूढः ] विद्यारूप रथ पर आरूढ़ हुआ ( – चढ़ा हुआ) [मनोरथपथेषु ] मनरूप रथके पथमें (ज्ञानरूप रथके चलनेके मार्गमें) [भ्रमति ] भ्रमण क रता है, [सः ] वह [जिनज्ञानप्रभावी ] जिनेन्द्रभगवानके ज्ञानकी प्रभावना क रनेवाला [सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये ।
टीका : — क्योंकि सम्यग्दृष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण ज्ञानकी समस्त शक्तिको प्रगट करने – विकसित करने – फै लानेके द्वारा प्रभाव उत्पन्न करता है इसलिए, प्रभावना करनेवाला है, अतः उसे ज्ञानकी प्रभावनाके अप्रकर्षसे (ज्ञानकी प्रभावना न बढ़ानेसे) होनेवाला बन्ध नहीं, किन्तु निर्जरा ही है ।
भावार्थ : — प्रभावनाका अर्थ है प्रगट करना, उद्योत करना इत्यादि; इसलिए जो अपने ज्ञानको निरन्तर अभ्यासके द्वारा प्रगट करता है — बढ़ाता है, उसके प्रभावना अंग होता है । उसे अप्रभावनाकृत कर्मबन्ध नहीं होता, किन्तु कर्म रस देकर खिर जाते हैं, इसलिए उसके निर्जरा ही है ।
इस गाथामें निश्चयप्रभावनाका स्वरूप कहा है । जैसे जिनबिम्बको रथारूढ़ करके नगर, वन इत्यादिमें फि राकर व्यवहारप्रभावना की जाती है, इसीप्रकार जो विद्यारूप (ज्ञानरूप) रथमें आत्माको विराजमान करके मनरूप (ज्ञानरूप) मार्गमें भ्रमण करता है वह ज्ञानकी प्रभावनायुक्त सम्यग्दृष्टि है, वह निश्चयप्रभावना करनेवाला है ।