(मन्दाक्रान्ता)
रुन्धन् बन्धं नवमिति निजैः संगतोऽष्टाभिरंगैः
प्राग्बद्धं तु क्षयमुपनयन् निर्जरोज्जृम्भणेन ।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
गुण निर्जराके कारण हैं । इसीप्रकार सम्यक्त्वके अन्य गुण भी निर्जराके कारण जानना चाहिए ।
इस ग्रन्थमें निश्चयनयप्रधान कथन होनेसे यहाँ निःशंकितादि गुणोंका निश्चय स्वरूप (स्व-
आश्रित स्वरूप) बताया गया है । उसका सारांश इसप्रकार है : — जो सम्यग्दृष्टि आत्मा अपने
ज्ञान-श्रद्धानमें निःशंक हो, भयके निमित्तसे स्वरूपसे चलित न हो अथवा सन्देहयुक्त न हो,
उसके निःशंकितगुण होता है ।१। जो कर्मफलकी वाँछा न करे तथा अन्य वस्तुके धर्मोंकी वाँछा
न करे, उसे निःकांक्षित गुण होता है ।२। जो वस्तुके धर्मोंके प्रति ग्लानि न करे, उसके
निर्विचिकित्सा गुण होता है ।३। जो स्वरूपमें मूढ़ न हो, स्वरूपको यथार्थ जाने, उसके अमूढ़दृष्टि
गुण होता है ।४। जो आत्माको शुद्धस्वरूपमें युक्त करे, आत्माकी शक्ति बढ़ाये, और अन्य
धर्मोंको गौण करे, उसके उपबृंहण अथवा उपगूहन गुण होता है ।५। जो स्वरूपसे च्युत होते
हुए आत्माको स्वरूपमें स्थापित करे, उसके स्थितिकरण गुण होता है ।६। जो अपने स्वरूपके
प्रति विशेष अनुराग रखता है, उसके वात्सल्य गुण होता है ।७। जो आत्माके ज्ञानगुणको प्रकाशित
करे — प्रगट करे, उसके प्रभावना गुण होता है ।८। ये सभी गुण उनके प्रतिपक्षी दोषोंके द्वारा
जो कर्मबन्ध होता था उसे नहीं होने देते । और इन गुणोंके सद्भावमें, चारित्रमोहके उदयरूप
शंकादि प्रवर्ते तो भी उनकी ( – शंकादिकी) निर्जरा ही हो जाती है, नवीन बन्ध नहीं होता;
क्योंकि बन्ध तो प्रधानतासे मिथ्यात्वके अस्तित्वमें ही कहा है ।
सिद्धान्तमें गुणस्थानोंकी परिपाटीमें चारित्रमोहके उदयनिमित्तसे सम्यग्दृष्टिके जो बन्ध कहा
है वह भी निर्जरारूप ही ( – निर्जराके समान ही) समझना चाहिए, क्योंकि सम्यग्दृष्टिके जैसे
पूर्वमें मिथ्यात्वके उदयके समय बँधा हुआ कर्म खिर जाता है उसीप्रकार नवीन बँधा हुआ कर्म
भी खिर जाता है; उसके उस कर्मके स्वामित्वका अभाव होनेसे वह आगामी बन्धरूप नहीं,
किन्तु निर्जरारूप ही है । जैसे — कोई पुरुष दूसरेका द्रव्य उधार लाया हो तो उसमें उसे
ममत्वबुद्धि नहीं होती, वर्तमानमें उस द्रव्यसे कुछ कार्य कर लेना हो तो वह करके पूर्व
निश्चयानुसार नियत समय पर उसके मालिकको दे देता है; नियत समयके आने तक वह द्रव्य
उसके घरमें पड़ा रहे तो भी उसके प्रति ममत्व न होनेसे उस पुरुषको उस द्रव्यका बन्धन नहीं
है, वह उसके स्वामीको दे देनेके बराबर ही है; इसीप्रकार — ज्ञानी कर्मद्रव्यको पराया मानता
है, इसलिये उसे उसके प्रति ममत्व नहीं होता अतः उसके रहते हुए भी वह निर्जरित हुएके
समान ही है ऐसा जानना चाहिए ।