सम्यग्द्रष्टिः स्वयमतिरसादादिमध्यान्तमुक्तं
ज्ञानं भूत्वा नटति गगनाभोगरंगंं विगाह्य ।।१६२।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
निर्जरा अधिकार
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यह निःशंकितादि आठ गुण व्यवहारनयसे व्यवहारमोक्षमार्ग पर इसप्रकार लगाने चाहिये
: — जिनवचनमें सन्देह नहीं करना, भयके आने पर व्यवहार दर्शन-ज्ञान-चारित्रसे नहीं डिगना, सो
निःशंकितत्त्व है ।१। संसार-देह-भोगकी वाँछासे तथा परमतकी वाँछासे व्यवहारमोक्षमार्गसे
चलायमान न होना सो निःकांक्षितत्व है ।२। अपवित्र, दुर्गन्धित आदि वस्तुओंके निमित्तसे
व्यवहारमोक्षमार्गकी प्रवृत्तिके प्रति ग्लानि न करना सो निर्विचिकित्सा है ।३। देव, गुरु, शास्त्र,
लौकिक प्रवृत्ति, अन्यमतादिके तत्त्वार्थका स्वरूप — इत्यादिमें मूढ़ता न रखना, यथार्थ जानकर
प्रवृत्ति करना सो अमूढ़दृष्टि है ।४। धर्मात्मामें कर्मोदयसे दोष आ जाये तो उसे गौण करना और
व्यवहारमोक्षमार्गकी प्रवृत्तिको बढ़ाना सो उपगूहन अथवा उपबृंहण है ।५। व्यवहारमोक्षमार्गसे च्युत
होते हुए आत्माको स्थिर करना सो स्थितिकरण है ।६। व्यवहारमोक्षमार्गमें प्रवृत्ति करनेवाले पर
विशेष अनुराग होना सो वात्सल्य है ।७। व्यवहारमोक्षमार्गका अनेक उपायोंसे उद्योत करना सो
प्रभावना है ।८। इसप्रकार आठों ही गुणोंका स्वरूप व्यवहारनयको प्रधान करके कहा है । यहाँ
निश्चयप्रधान कथनमें उस व्यवहारस्वरूपकी गौणता है । सम्यग्ज्ञानरूप प्रमाणदृष्टिमें दोनों प्रधान हैं ।
स्याद्वादमतमें कोई विरोध नहीं है ।।२३६।।
अब, निर्जराके यथार्थ स्वरूपको जाननेवाले और कर्मोंके नवीन बन्धको रोककर निर्जरा
करनेवाले सम्यग्दृष्टिकी महिमा करके निर्जरा अधिकार पूर्ण करते हैं : —
श्लोकार्थ : — [इति नवम् बन्धं रुन्धन् ] इसप्रकार नवीन बन्धको रोक ता हुआ और
[निजैः अष्टाभिः अगैः संगतः निर्जरा-उज्जृम्भणेन प्राग्बद्धं तु क्षयम् उपनयम् ] (स्वयं) अपने आठ
अंगोंसे युक्त होनेके कारण निर्जरा प्रगट होनेसे पूर्वबद्ध कर्मोंका नाश करता हुआ [सम्यग्दृष्टिः ]
सम्यग्दृष्टि जीव [स्वयम् ] स्वयं [अतिरसात् ] अति रससे (निजरसमें मस्त हुआ) [आदि-मध्य-
अन्तमुक्तं ज्ञानं भूत्वा ] आदि-मध्य-अंत रहित (सर्वव्यापक , एकप्रवाहरूप धारावाही) ज्ञानरूप
होकर [गगन-आभोग-रंगं विगाह्य ] आकाशके विस्ताररूप रंगभूमिमें अवगाहन करके (ज्ञानके
द्वारा समस्त गगनमंडलमें व्याप्त होकर) [नटति ] नृत्य करता है
।
भावार्थ : — सम्यग्दृष्टिको शंकादिकृत नवीन बन्ध तो नहीं होता और स्वयं अष्टांगयुक्त
होनेसे निर्जराका उदय होनेके कारण उसके पूर्वके बन्धका नाश होता है । इसलिये वह धारावाही
ज्ञानरूप रसका पान करके, निर्मल आकाशरूप रंगभूमिमें ऐसे नृत्य करता है जैसे कोई पुरुष मद्य
पीकर मग्न हुआ नृत्यभूमिमें नाचता है ।