कहानजैनशास्त्रमाला ]
बन्ध अधिकार
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श्रद्धत्ते । ज्ञानमश्रद्दधानश्चाचाराद्येकादशांगंं श्रुतमधीयानोऽपि श्रुताध्ययनगुणाभावान्न ज्ञानी स्यात् ।
स किल गुणः श्रुताध्ययनस्य यद्विविक्त वस्तुभूतज्ञानमयात्मज्ञानं; तच्च विविक्त वस्तुभूतं ज्ञानम-
श्रद्दधानस्याभव्यस्य श्रुताध्ययनेन न विधातुं शक्येत । ततस्तस्य तद्गुणाभावः । ततश्च
ज्ञानश्रद्धानाभावात् सोऽज्ञानीति प्रतिनियतः ।
तस्य धर्मश्रद्धानमस्तीति चेत् —
सद्दहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो य फासेदि ।
धम्मं भोगणिमित्तं ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं ।।२७५।।
श्रद्दधाति च प्रत्येति च रोचयति च तथा पुनश्च स्पृशति ।
धर्मं भोगनिमित्तं न तु स कर्मक्षयनिमित्तम् ।।२७५।।
कारण, मोक्षकी ही श्रद्धा नहीं करता । इसलिये वह ज्ञानकी भी श्रद्धा नहीं करता । और ज्ञानकी
श्रद्धा न करता हुआ, वह (अभव्य) आचारांग आदि ग्यारह अंगरूप श्रुतको (शास्त्रोंको) पढ़ता
हुआ भी, शास्त्रपठनका जो गुण उसके अभावके कारण ज्ञानी नहीं है । जो भिन्नवस्तुभूत ज्ञानमय
आत्माका ज्ञान वह शास्त्रपठनका गुण है; और वह तो (ऐसा शुद्धात्मज्ञान तो), भिन्नवस्तुभूत
ज्ञानकी श्रद्धा न करनेवाले अभव्यके शास्त्रपठनके द्वारा नहीं किया जा सकता (अर्थात् शास्त्रपठन
उसको शुद्धात्मज्ञान नहीं कर सकता); इसलिये उसके शास्त्रपठनके गुणका अभाव है; और
इसलिये ज्ञान-श्रद्धानके अभावके कारण वह अज्ञानी सिद्ध हुआ ।
भावार्थ : — अभव्य जीव ग्यारह अंगोंको पढ़े तथापि उसे शुद्ध आत्माका ज्ञान-श्रद्धान नहीं
होता; इसलिये उसे शास्त्रपठनने गुण नहीं किया; और इसलिये वह अज्ञानी ही है ।।२७४।।
शिष्य पुनः पूछता है कि — अभव्यको धर्मका श्रद्धान तो होता है; फि र भी यह क्यों कहा
है कि ‘उसके श्रद्धान नहीं है’ ? इसका उत्तर कहते हैं : —
वह धर्मको श्रद्धे, प्रतीत, रुचि अरु स्पर्शन करे ।
सो भोगहेतू धर्मको, नहिं कर्मक्षयके हेतुको ।।२७५।।
गाथार्थ : — [सः ] वह (अभव्य जीव) [ भोगनिमित्तं धर्मं ] भोगके निमित्तरूप धर्मकी
ही [श्रद्दधाति च ] श्रद्धा करता है, [प्रत्येति च ] उसीकी प्रतीति करता है, [रोचयति च ] उसीकी
रुचि करता है [तथा पुनः स्पृशति च ] और उसीका स्पर्श करता है, [न तु कर्मक्षयनिमित्तम् ]