Samaysar (Hindi). Gatha: 275.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]
बन्ध अधिकार
४०७
श्रद्धत्ते ज्ञानमश्रद्दधानश्चाचाराद्येकादशांगंं श्रुतमधीयानोऽपि श्रुताध्ययनगुणाभावान्न ज्ञानी स्यात्
स किल गुणः श्रुताध्ययनस्य यद्विविक्त वस्तुभूतज्ञानमयात्मज्ञानं; तच्च विविक्त वस्तुभूतं ज्ञानम-
श्रद्दधानस्याभव्यस्य श्रुताध्ययनेन न विधातुं शक्येत
ततस्तस्य तद्गुणाभावः ततश्च
ज्ञानश्रद्धानाभावात् सोऽज्ञानीति प्रतिनियतः
तस्य धर्मश्रद्धानमस्तीति चेत्
सद्दहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो य फासेदि
धम्मं भोगणिमित्तं ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं ।।२७५।।
श्रद्दधाति च प्रत्येति च रोचयति च तथा पुनश्च स्पृशति
धर्मं भोगनिमित्तं न तु स कर्मक्षयनिमित्तम् ।।२७५।।
कारण, मोक्षकी ही श्रद्धा नहीं करता इसलिये वह ज्ञानकी भी श्रद्धा नहीं करता और ज्ञानकी
श्रद्धा न करता हुआ, वह (अभव्य) आचारांग आदि ग्यारह अंगरूप श्रुतको (शास्त्रोंको) पढ़ता
हुआ भी, शास्त्रपठनका जो गुण उसके अभावके कारण ज्ञानी नहीं है
जो भिन्नवस्तुभूत ज्ञानमय
आत्माका ज्ञान वह शास्त्रपठनका गुण है; और वह तो (ऐसा शुद्धात्मज्ञान तो), भिन्नवस्तुभूत
ज्ञानकी श्रद्धा न करनेवाले अभव्यके शास्त्रपठनके द्वारा नहीं किया जा सकता (अर्थात् शास्त्रपठन
उसको शुद्धात्मज्ञान नहीं कर सकता); इसलिये उसके शास्त्रपठनके गुणका अभाव है; और
इसलिये ज्ञान-श्रद्धानके अभावके कारण वह अज्ञानी सिद्ध हुआ
भावार्थ :अभव्य जीव ग्यारह अंगोंको पढ़े तथापि उसे शुद्ध आत्माका ज्ञान-श्रद्धान नहीं
होता; इसलिये उसे शास्त्रपठनने गुण नहीं किया; और इसलिये वह अज्ञानी ही है ।।२७४।।
शिष्य पुनः पूछता है किअभव्यको धर्मका श्रद्धान तो होता है; फि र भी यह क्यों कहा
है कि ‘उसके श्रद्धान नहीं है’ ? इसका उत्तर कहते हैं :
वह धर्मको श्रद्धे, प्रतीत, रुचि अरु स्पर्शन करे
सो भोगहेतू धर्मको, नहिं कर्मक्षयके हेतुको ।।२७५।।
गाथार्थ :[सः ] वह (अभव्य जीव) [ भोगनिमित्तं धर्मं ] भोगके निमित्तरूप धर्मकी
ही [श्रद्दधाति च ] श्रद्धा करता है, [प्रत्येति च ] उसीकी प्रतीति करता है, [रोचयति च ] उसीकी
रुचि करता है [तथा पुनः स्पृशति च ] और उसीका स्पर्श करता है, [न तु कर्मक्षयनिमित्तम् ]