शीलतपःपरिपूर्णं त्रिगुप्तिपंचसमितिपरिकलितमहिंसादिपंचमहाव्रतरूपं व्यवहारचारित्रं अभव्योऽपि कुर्यात्, तथापि च निश्चारित्रोऽज्ञानी मिथ्याद्रष्टिरेव, निश्चयचारित्रहेतुभूतज्ञानश्रद्धान- शून्यत्वात् ।
मोक्षं हि न तावदभव्यः श्रद्धत्ते, शुद्धज्ञानमयात्मज्ञानशून्यत्वात् । ततो ज्ञानमपि नासौ जीव [अज्ञानी ] अज्ञानी [मिथ्यादृष्टिः तु ] और मिथ्यादृष्टि है ।
टीका : — शील और तपसे परिपूर्ण, तीन गुप्ति और पाँच समितियोंके प्रति सावधानीसे युक्त, अहिंसादि पाँच महाव्रतरूप व्यवहारचारित्र (का पालन) अभव्य भी करता है; तथापि वह (अभव्य) निश्चारित्र (-चारित्ररहित), अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि ही है, क्योंकि (वह) निश्चयचारित्रके कारणरूप ज्ञान – श्रद्धानसे शून्य है ।
भावार्थ : — अभव्य जीव महाव्रत-समिति-गुप्तिरूप व्यवहार चारित्रका पालन करे तथापि निश्चय सम्यग्ज्ञानश्रद्धानके बिना वह चारित्र ‘सम्यक् चारित्र’ नामको प्राप्त नहीं होता; इसलिये वह अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और निश्चारित्र ही है ।।२७३।।
अब शिष्य पूछता है कि — उसे (अभव्यको) ग्यारह अंगका ज्ञान तो होता है; फि र भी उसको अज्ञानी क्यों कहा है ? इसका उत्तर कहते हैं : —
गाथार्थ : — [मोक्षम् अश्रद्दधानः ] मोक्षकी श्रद्धा न करता हुआ [यः अभव्यसत्त्वः ] जो अभव्य जीव है वह [तु अधीयीत ] शास्त्र तो पढ़ता है, [तु ] परन्तु [ज्ञानं अश्रद्दधानस्य ] ज्ञानकी श्रद्धा न करनेवाले उसकोे [पाठः ] शास्त्रपठन [गुणम् न करोति ] गुण नहीं करता ।