Samaysar (Hindi). Gatha: 274.

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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-

शीलतपःपरिपूर्णं त्रिगुप्तिपंचसमितिपरिकलितमहिंसादिपंचमहाव्रतरूपं व्यवहारचारित्रं अभव्योऽपि कुर्यात्, तथापि च निश्चारित्रोऽज्ञानी मिथ्याद्रष्टिरेव, निश्चयचारित्रहेतुभूतज्ञानश्रद्धान- शून्यत्वात्

तस्यैकादशांगज्ञानमस्ति इति चेत्
मोक्खं असद्दहंतो अभवियसत्तो दु जो अधीएज्ज
पाठो ण करेदि गुणं असद्दहंतस्स णाणं तु ।।२७४।।
मोक्षमश्रद्दधानोऽभव्यसत्त्वस्तु योऽधीयीत
पाठो न करोति गुणमश्रद्दधानस्य ज्ञानं तु ।।२७४।।

मोक्षं हि न तावदभव्यः श्रद्धत्ते, शुद्धज्ञानमयात्मज्ञानशून्यत्वात् ततो ज्ञानमपि नासौ जीव [अज्ञानी ] अज्ञानी [मिथ्यादृष्टिः तु ] और मिथ्यादृष्टि है

टीका :शील और तपसे परिपूर्ण, तीन गुप्ति और पाँच समितियोंके प्रति सावधानीसे युक्त, अहिंसादि पाँच महाव्रतरूप व्यवहारचारित्र (का पालन) अभव्य भी करता है; तथापि वह (अभव्य) निश्चारित्र (-चारित्ररहित), अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि ही है, क्योंकि (वह) निश्चयचारित्रके कारणरूप ज्ञानश्रद्धानसे शून्य है

भावार्थ :अभव्य जीव महाव्रत-समिति-गुप्तिरूप व्यवहार चारित्रका पालन करे तथापि निश्चय सम्यग्ज्ञानश्रद्धानके बिना वह चारित्र ‘सम्यक् चारित्र’ नामको प्राप्त नहीं होता; इसलिये वह अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और निश्चारित्र ही है ।।२७३।।

अब शिष्य पूछता है किउसे (अभव्यको) ग्यारह अंगका ज्ञान तो होता है; फि र भी उसको अज्ञानी क्यों कहा है ? इसका उत्तर कहते हैं :

मोक्षकी श्रद्धाविहीन, अभव्य जीव शास्त्रों पढ़ै
पर ज्ञानकी श्रद्धारहितको, पठन ये नहिं गुण करै ।।२७४।।

गाथार्थ :[मोक्षम् अश्रद्दधानः ] मोक्षकी श्रद्धा न करता हुआ [यः अभव्यसत्त्वः ] जो अभव्य जीव है वह [तु अधीयीत ] शास्त्र तो पढ़ता है, [तु ] परन्तु [ज्ञानं अश्रद्दधानस्य ] ज्ञानकी श्रद्धा न करनेवाले उसकोे [पाठः ] शास्त्रपठन [गुणम् न करोति ] गुण नहीं करता

टीका :प्रथम तो अभव्य जीव, (स्वयं) शुद्धज्ञानमय आत्माके ज्ञानसे शून्य होनेके