कहानजैनशास्त्रमाला ]
बन्ध अधिकार
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पराश्रितत्वाविशेषात् । प्रतिषेध्य एव चायं, आत्माश्रितनिश्चयनयाश्रितानामेव मुच्यमानत्वात्,
पराश्रितव्यवहारनयस्यैकान्तेनामुच्यमानेनाभव्येनाप्याश्रीयमाणत्वाच्च ।
कथमभव्येनाप्याश्रीयते व्यवहारनयः इति चेत् —
वदसमिदीगुत्तीओ सीलतवं जिणवरेहि पण्णत्तं ।
कुव्वंतो वि अभव्वो अण्णाणी मिच्छदिट्ठी दु ।।२७३।।
व्रतसमितिगुप्तयः शीलतपो जिनवरैः प्रज्ञप्तम् ।
कुर्वन्नप्यभव्योऽज्ञानी मिथ्याद्रष्टिस्तु ।।२७३।।
है उसीप्रकार व्यवहारनय भी पराश्रित है, उसमें अन्तर नहीं है) । और इसप्रकार यह व्यवहारनय
निषेध करने योग्य ही है; क्योंकि आत्माश्रित निश्चयनयका आश्रय करनेवाले ही (कर्मसे) मुक्त
होते हैं और पराश्रित व्यवहारनयका आश्रय तो एकान्ततः मुक्त नहीं होनेवाला अभव्य भी
करता है ।
भावार्थ : — आत्माके परके निमित्तसे जो अनेक भाव होते हैं वे सब व्यवहारनयके
विषय हैं, इसलिये व्यवहारनय पराश्रित है, और जो एक अपना स्वाभाविक भाव है वही
निश्चयनयका ही विषय है इसलिये निश्चयनय आत्माश्रित है । अध्यवसान भी व्यवहारनयका ही
विषय है, इसलिये अध्यवसानका त्याग व्यवहारनयका ही त्याग है, और जो पूर्वोक्त गाथाओंमें
अध्यवसानके त्यागका उपदेश है वह व्यवहारनयके ही त्यागका उपदेश है । इसप्रकार
निश्चयनयको प्रधान करके व्यवहारनयके त्यागका उपदेश किया है उसका कारण यह है कि —
जो निश्चयनयके आश्रयसे प्रवर्तते हैं, वे ही कर्मसे मुक्त होते हैं और जो एकान्तमें व्यवहारनयके
ही आश्रयसे प्रवर्तते हैं, वे कर्मसे कभी मुक्त नहीं होते ।।२७२।।
अब प्रश्न होता है कि अभव्य जीव भी व्यवहारनयका आश्रय कैसे करता है ? उसका
उत्तर गाथा द्वारा कहते हैं : —
जिनवरप्ररूपित व्रत, समिति, गुप्ती अवरु तप शीलको ।
करता हुआ भी अभव्य जीव, अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है ।।२७३।।
गाथार्थ : — [जिनवरैः ] जिनवरोंके द्वारा [प्रज्ञप्तम् ] कथित [व्रतसमितिगुप्तयः ] व्रत,
समिति, गुप्ति, [शीलतपः ] शील और तप [कुर्वन् अपि ] क रता हुआ भी [अभव्यः ] अभव्य