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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणएण ।
णिच्छयणयासिदा पुण मुणिणो पावंति णिव्वाणं ।।२७२।।
एवं व्यवहारनयः प्रतिषिद्धो जानीहि निश्चयनयेन ।
निश्चयनयाश्रिताः पुनर्मुनयः प्राप्नुवन्ति निर्वाणम् ।।२७२।।
आत्माश्रितो निश्चयनयः, पराश्रितो व्यवहारनयः । तत्रैवं निश्चयनयेन पराश्रितं
समस्तमध्यवसानं बन्धहेतुत्वेन मुमुक्षोः प्रतिषेधयता व्यवहारनय एव किल प्रतिषिद्धः, तस्यापि
निश्चयम् एव निष्कम्पम् आक्रम्य ] एक सम्यक् निश्चयको ही निश्चलतया अंगीकार क रके
[शुद्धज्ञानघने निजे महिम्नि ] शुद्धज्ञानघनस्वरूप निज महिमामें ( – आत्मस्वरूपमें) [धृतिम् किं न
बध्नन्ति ] स्थिरता क्यों धारण नहीं करते ?
भावार्थ : — जिनेन्द्रदेवने अन्य पदार्थोंमें आत्मबुद्धिरूप अध्यवसान छुड़ाये हैं, इससे यह
समझना चाहिए कि यह समस्त पराश्रित व्यवहार ही छुड़ाया है । इसलिये आचार्यदेवने शुद्धनिश्चयके
ग्रहणका ऐसा उपदेश दिया है कि — ‘शुद्धज्ञानस्वरूप अपने आत्मामें स्थिरता रखो’ । और, ‘‘जब
कि भगवानने अध्यवसान छुड़ाये हैं तब फि र सत्पुरुष निश्चयको निश्चलतापूर्वक अंगीकार करके
स्वरूपमें स्थिर क्यों नहीं होते ? — यह हमें आश्चर्य होता है’’ यह कहकर आचार्यदेवने आश्चर्य प्रगट
किया है ।१७३।
अब इसी अर्थको गाथा द्वारा कहते हैं : —
व्यवहारनय इस रीत जान, निषिद्ध निश्चयनयहिसे ।
मुनिराज जो निश्चयनयाश्रित, मोक्षकी प्राप्ती करे ।।२७२।।
गाथार्थ : — [एवं ] इसप्रकार [व्यवहारनयः ] (पराश्रित) व्यवहारनय [निश्चयनयेन ]
निश्चयनयके द्वारा [प्रतिषिद्धः जानीहि ] निषिद्ध जान; [पुनः निश्चयनयाश्रिताः ] निश्चयनयके आश्रित
[मुनयः ] मुनिे [निर्वाणम् ] निर्वाणको [प्राप्नुवन्ति ] प्राप्त होते हैं ।
टीका : — आत्माश्रित (अर्थात् स्व-आश्रित) निश्चयनय है, पराश्रित (अर्थात् परके
आश्रित) व्यवहारनय है । वहाँ, पूर्वोक्त प्रकारसे पराश्रित समस्त अध्यवसान (अर्थात् अपने और
परके एकत्वकी मान्यतापूर्वक परिणमन) बन्धका कारण होनेसे मुमुक्षुओंको उसका
( – अध्यवसानका) निषेध करते हुए ऐसे निश्चयनयके द्वारा वास्तवमें व्यवहारनयका ही निषेध
किया गया है, क्योंकि व्यवहारनयके भी पराश्रितता समान ही है ( – जैसे अध्यवसान पराश्रित