कहानजैनशास्त्रमाला ]
बन्ध अधिकार
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स्वपरयोरविवेके सति जीवस्याध्यवसितिमात्रमध्यवसानं; तदेव च बोधनमात्रत्वाद्बुद्धिः,
व्यवसानमात्रत्वाद्वयवसायः, मननमात्रत्वान्मतिः, विज्ञप्तिमात्रत्वाद्विज्ञानं, चेतनामात्रत्वाच्चित्तं, चितो
भवनमात्रत्वाद्भावः, चितः परिणमनमात्रत्वात्परिणामः ।
(शार्दूलविक्रीडित)
सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनै-
स्तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः ।
सम्यङ्निश्चयमेकमेव तदमी निष्कम्पमाक्रम्य किं
शुद्धज्ञानघने महिम्नि न निजे बध्नन्ति सन्तो धृतिम् ।।१७३।।
१. अध्यवसिति = (एकमें दूसरेकी मान्यतापूर्वक) परिणति; (मिथ्या) निश्चिति; (मिथ्या) निश्चय होना ।
२. व्यवसान = काममें लगे रहना; उद्यमी होना; निश्चय होना ।
३. मनन = मानना; जानना ।
टीका : — स्व-परका अविवेक हो (स्व-परका भेदज्ञान न हो) तब जीवकी
१अध्यवसितिमात्र अध्यवसान है; और वही (जिसे अध्यवसान कहा है वही) बोधनमात्रत्वसे बुद्धि
है, २व्यवसानमात्रत्वसे व्यवसाय है, ३मननमात्रत्वसे मति है, विज्ञप्तिमात्रत्वसे विज्ञान है,
चेतनामात्रत्वसे चित्त है, चेतनके भवनमात्रत्वसे भाव है, चेतनके परिणमनमात्रत्वसे परिणाम है ।
(इसप्रकार यह सब शब्द एकार्थवाची हैं ।)
भावार्थ : — यह तो बुद्धि आदि आठ नाम कहे गये हैं, वे सभी चेतन आत्माके परिणाम
हैं । जब तक स्व-परका भेदज्ञान न हो तब तक जीवके जो अपने और परके एकत्वके निश्चयरूप
परिणति पाई जाती है उसे बुद्धि आदि आठ नामोंसे कहा जाता है ।।२७१।।
‘अध्यवसान त्यागने योग्य कहे हैं इससे ऐसा ज्ञात होता है कि व्यवहारका
त्याग और निश्चयका ग्रहण कराया है’ — इस अर्थका, एवं आगामी कथनका सूचक काव्य
कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — आचार्यदेव कहते हैं कि : — [सर्वत्र यद् अध्यवसानम् ] सर्व वस्तुओंमें जो
अध्यवसान होते हैं, [अखिलं ] वे सभी (अध्यवसान) [जिनैः ] जिनेन्द्र भगवानने [एवम् ]
पूर्वाेक्त रीतिसे [त्याज्यं उक्तं ] त्यागने योग्य कहे हैं, [तत् ] इसलिये [मन्ये ] हम यह मानते
हैं कि [अन्य-आश्रयः व्यवहारः एव निखिलः अपि त्याजितः ] ‘पर जिसका आश्रय है ऐसा
व्यवहार ही सम्पूर्ण छुड़ाया है’ । [तत् ] तब फि र, [अमी सन्तः ] यह सत्पुरुष [एकम् सम्यक्