होती हुई ज्ञानज्योति किंचित् मात्र भी अज्ञानरूप, मिथ्यादर्शनरूप और अचारित्ररूप नहीं होती इसलिए), शुभ या अशुभ कर्मसे वास्तवमें लिप्त नहीं होते ।
भावार्थ : — यह जो अध्यवसान हैं वे ‘मैं परका हनन करता हूँ’ इसप्रकारके हैं, ‘मैं नारक हूँ’ इसप्रकारके हैं तथा ‘मैं परद्रव्यको (अपनेरूप) जानता हूँ’ इसप्रकारके हैं । वे, जब तक आत्माका और रागादिका, आत्माका और नारकादि कर्मोदयजनित भावोंका तथा आत्माका और ज्ञेयरूप अन्यद्रव्योंका भेद न जानता हो, तब तक रहते हैं । वे भेदज्ञानके अभावके कारण मिथ्याज्ञानरूप हैं, मिथ्यादर्शनरूप हैं और मिथ्याचारित्ररूप हैं; यों तीन प्रकारके होते हैं । वे अध्यवसान जिनके नहीं हैं वे मुनिकुंजर हैं । वे आत्माको सम्यक् जानते हैं, सम्यक् श्रद्धा करते हैं और सम्यक् आचरण करते हैं, इसलिये अज्ञानके अभावसे सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप होते हुए कर्मोंसे लिप्त नहीं होते ।।२७०।।
‘‘यहाँ बारम्बार अध्यवसान शब्द कहा गया है, वह अध्यवसान क्या है ? उसका स्वरूप भलीभाँति समझमें नहीं आया’’ । ऐसा प्रश्न होने पर, अब अध्यवसानका स्वरूप गाथा द्वारा कहते हैं ।
गाथार्थ : — [बुद्धिः ] बुद्धि, [व्यवसायः अपि च ] व्यवसाय, [अध्यवसानं ] अध्यवसान, [मतिः च ] मति, [विज्ञानम् ] विज्ञान, [चित्तं ] चित्त, [भावः ] भाव [च ] और [परिणामः ] परिणाम — [सर्वं ] ये सब [एकार्थम् एव ] एकार्थ ही हैं (अर्थात् नाम अलग अलग हैं, किन्तु अर्थ भिन्न नहीं हैं ) ।