कहानजैनशास्त्रमाला ]
बन्ध अधिकार
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विविक्तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रम् । [यत्पुनः नारकोऽहमित्याद्यध्यवसानं तदपि, ज्ञानमय-
त्वेनात्मनः सदहेतुकज्ञायकैकभावस्य कर्मोदयजनितानां नारकादिभावानां च विशेषाज्ञानेन
विविक्तात्माज्ञानादस्ति तावदज्ञानं, विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं, विविक्तात्माना-
चरणादस्ति चाचारित्रम् ।] यत्पुनरेष धर्मो ज्ञायत इत्याद्यध्यवसानं तदपि, ज्ञानमयत्वेनात्मनः
सदहेतुकज्ञानैकरूपस्य ज्ञेयमयानां धर्मादिरूपाणां च विशेषाज्ञानेन विविक्तात्माज्ञानादस्ति
तावदज्ञानं, विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं, विविक्तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रम् । ततो
बन्धनिमित्तान्येवैतानि समस्तान्यध्यवसानानि । येषामेवैतानि न विद्यन्ते त एव मुनिकुंजराः
केचन, सदहेतुकज्ञप्त्येकक्रियं, सदहेतुकज्ञायकैकभावं, सदहेतुकज्ञानैकरूपं च विविक्त मात्मानं
जानन्तः सम्यक्पश्यन्तोऽनुचरन्तश्च, स्वच्छस्वच्छन्दोद्यदमन्दान्तर्ज्योतिषोऽत्यन्तमज्ञानादिरूपत्वा-
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(अश्रद्धान) होनेसे (वह अध्यवसान) मिथ्यादर्शन है और भिन्न आत्माका अनाचरण होनेसे
(वह अध्यवसान) अचारित्र है । [और ‘मैं नारक हूँ’ इत्यादि जो अध्यवसान है उस
अध्यवसानवाले जीवको भी, ज्ञानमयपनेके सद्भावसे सत्रूप अहेतुक ज्ञायक ही जिसका एक
भाव है, ऐसे आत्माका और कर्मोदयजनित नारक आदि भावोंका विशेष न जाननेके कारण
भिन्न आत्माका अज्ञान होनेसे, वह अध्यवसान प्रथम जो अज्ञान है, भिन्न आत्माका अदर्शन
होनेसे (वह अध्यवसान) मिथ्यादर्शन है और भिन्न आत्माका अनाचरण होनेसे (वह
अध्यवसान) अचारित्र है ।]] और ‘यह धर्मद्रव्य ज्ञात होता है’ इत्यादि जो अध्यवसान है उस
अध्यवसानवाले जीवको भी, १ज्ञानमयपनेके सद्भावसे सत्रूप अहेतुक ज्ञान ही जिसका एक
रूप है ऐसे आत्माका और ज्ञेयमय धर्मादिकरूपोंका विशेष न जाननेके कारण भिन्न आत्माका
अज्ञान होनेसे, वह अध्यवसान प्रथम तो अज्ञान है, भिन्न आत्माका अदर्शन होनेसे (वह
अध्यवसान) मिथ्यादर्शन है और भिन्न आत्माका अनाचरण होनेसे (वह अध्यवसान) अचारित्र
है । इसलिये यह समस्त अध्यवसान बन्धके ही निमित्त हैं ।
मात्र जिनके यह अध्यवसान विद्यमान नहीं है, वे ही कोई (विरल) मुनिकुंजर
(मुनिवर), सत्रूप अहेतुक ज्ञप्ति ही जिनकी एक क्रिया है, सत्रूप अहेतुक ज्ञायक ही
जिसका एक भाव है और सत्रूप अहेतुक ज्ञान ही जिसका एक रूप है ऐसे भिन्न आत्माको
( – सर्व अन्यद्रव्यभावोंसे भिन्न आत्माको) जानते हुए, सम्यक् प्रकारसे देखते (श्रद्धा करते)
हुए और अनुचरण करते हुए, स्वच्छ और स्वच्छन्दतया उदयमान ( – स्वाधीनतया प्रकाशमान)
ऐसी अमंद अन्तर्ज्योतिको अज्ञानादिरूपताका अत्यंत अभाव होनेसे (अर्थात् अन्तरंगमें प्रकाशित
*१. आत्मा ज्ञानमय है, इसलिये सत्रूप अहेतुक ज्ञान ही उसका एक रूप है ।