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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
एदाणि णत्थि जेसिं अज्झवसाणाणि एवमादीणि ।
ते असुहेण सुहेण व कम्मेण मुणी ण लिप्पंति ।।२७०।।
एतानि न सन्ति येषामध्यवसानान्येवमादीनि ।
ते अशुभेन शुभेन वा कर्मणा मुनयो न लिप्यन्ते ।।२७०।।
एतानि किल यानि त्रिविधान्यध्यवसानानि तानि समस्तान्यपि शुभाशुभ-
कर्मबन्धनिमित्तानि, स्वयमज्ञानादिरूपत्वात् । तथा हि — यदिदं हिनस्मीत्याद्यध्यवसानं तत्,
ज्ञानमयत्वेनात्मनः सदहेतुकज्ञप्त्येकक्रियस्य रागद्वेषविपाकमयीनां हननादिक्रियाणां च विशेषाज्ञानेन
विविक्तात्माज्ञानादस्ति तावदज्ञानं, विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं,
इन आदि अध्यवसान विधविध वर्तते नहिं जिनहिको ।
शुभ-अशुभ कर्म अनेकसे, मुनिराज वे नहिं लिप्त हों ।।२७०।।
गाथार्थ : — [एतानि ] यह (पूर्व कथित) [एवमादीनि ] तथा ऐसे और भी
[अध्यवसानानि ] अध्यवसान [येषाम् ] जिनके [न सन्ति ] नहीं हैं, [ते मुनयः ] वे मुनि
[अशुभेन ] अशुभ [वा शुभेन ] या शुभ [कर्मणा ] क र्मसे [न लिप्यन्ते ] लिप्त नहीं होते ।
टीका : — यह जो तीन प्रकारके अध्यवसान हैं वे सभी स्वयं अज्ञानादिरूप (अर्थात्
अज्ञान, मिथ्यादर्शन और अचारित्ररूप) होनेसे शुभाशुभ कर्मबन्धके निमित्त हैं । इसे विशेष
समझाते हैं : — ‘मैं (परजीवोंको) मारता हूँ’ इत्यादि जो यह अध्यवसान है उस अध्यवसानवाले
जीवको, ज्ञानमयपनेके सद्भावसे १सत्रूप, २अहेतुक, ३ज्ञप्ति ही जिसकी एक क्रिया है ऐसे
आत्माका और रागद्वेषके उदयमय ऐसी ४हनन आदि क्रियाओंका ५विशेष नहीं जाननेके कारण
भिन्न आत्माका अज्ञान होनेसे, वह अध्यवसान प्रथम तो अज्ञान है, भिन्न आत्माका अदर्शन
१. सत्रूप = सत्तास्वरूप; अस्तित्वस्वरूप । (आत्मा ज्ञानमय है, इसलिये सत्रूप अहेतुक ज्ञप्ति ही उसकी
एक क्रिया है ।)
२. अहेतुक = जिसका कोई कारण नहीं है ऐसी; अकारण; स्वयंसिद्ध; सहज ।
३. ज्ञप्ति = जानना; जाननेरूपक्रिया । (ज्ञप्तिक्रिया सत्रूप है, और सत्रूप होनेसे अहेतुक है ।)
४. हनन = घात करना; घात करनेरूप क्रिया । (घात करना आदि क्रियायें राग-द्वेषके उदयमय हैं ।)
५. विशेष = अन्तर; भिन्न लक्षण ।